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* जिनसहस्रनाम टीका - १३६ * गुण सहित ही उत्पन्न हुए हैं। अथवा सातिशय लाभ से जिनदेव युक्त हैं। ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति प्रभु को इतरजनों की अपेक्षा से विशिष्ट है। वे जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक हैं। जन्म से ही उनका रक्त श्वेतवर्ण - दूध के समान शुभ्र होता है। शरीर स्वभाव से ही पायाभ होता है। शारीरिक, वाचनिक, तथा ! मानसिक गुण यत्न के बिना असामान्य उत्कृष्ट होते हैं अत: वे असंस्कृतसुसस्कार हैं।
अप्राकृतः = असंस्कृतत्वात् प्रकृतेर्भाव: प्राकृतः न प्राकृतः अप्राकृतः किलाष्टमे वर्षे मूलगुणान् गृह्णाति भगवानित्यर्थः, तथा हलायुध-नाममालायां, इतर प्राकृत पामर पृथक् जना वर्वराश्च तुल्यार्थाः = जिस पर संस्कार नहीं हुए ऐसा पदार्थ प्राकृत कहा जाता है और भगवान के ऊपर जन्म से आठवें वर्ष में स्वयं मूलगुण के संस्कार होते हैं, अर्थात् मद्य, मांस, मधु त्यागपूर्वक मूलगुणों को, पंचाणुव्रतों को बिना गुरु के धारण करते हैं। इसलिए वे अप्राकृत हैं। अथवा वे पृथग्जन दुष्ट, पामर, बर्बर, अनार्य, सरीखे नहीं हैं । वे महान् पुरुष हैं। अतः वे अप्राकृत हैं।
वैकृतांतकृत् = विकृतो भावो वैकृतः वैकृतस्य विकारस्य रोगस्य अन्तं विनाशं करोतीति वैकृतांतकृत् विकारनाशकारीत्यर्थः । तथानेकार्थे - विकृतो रोग: असंस्कृतः बीभत्सश्च = विकृति - रोगादिक उनका जो सद्भाव वह वैकृत कहा जाता है। भगवान में ऐसा वैकृत भाव नहीं है। रोगादिक दोष नहीं हैं। वैकृतभाव का उन्होंने अन्त कर दिया है। इसलिए वे वैकृतान्तकृत् हैं।।
अंतकृत् = अन्त संसारस्यावसानं कृतवान् अंतकृत, अंतं विनाशं मरणं कृततीति अन्तकृत्, अथवा अन्तं मोक्षस्य सामीप्यं करोतीति अंतकृत्, अथवा व्यवहारं परित्यज्य अंत निश्चयं करोतीति अंतकृत् अथवा अन्तं मुक्ते: सन्निधीभूतमात्मानं करोतीति मुक्तिस्थानस्यैकपार्वे तिष्ठतीति अन्तकृत्, उक्तं च -
निश्चयेऽवयवे प्रान्ते विनाशे निकटे तथा। स्वरूपे षट्सु चार्थेषु अन्तशब्दोऽत्र भण्यते ।