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________________ * जिनसहस्रनाम टीका- ११७ * गया वह महायज्ञ है। अथवा महान् केवलज्ञान रूप यज्ञ है लक्षण जिसका ऐसा वह महायज्ञ है अथवा पाँच प्रकार के यज्ञ जिसके हैं- वह महायज्ञ है। कहा है अध्यापन ब्रह्मयज्ञ हैं, तर्पण पितृयज्ञ है, होम दैव यज्ञ है, बलि (अर्पणचढ़ावा ) भूतयज्ञ है और अतिथि पूजन नृयज्ञ है । - महामख: = महान् पूज्यो मखो यज्ञो यस्य स महामख: । महान् पूज्य है यज्ञ जिसका ऐसे वे महामख हैं। महाव्रतपतिर्मह्यो महाकान्तिथरोऽधिपः । महामैत्रीमयोऽमेयो, महोपायो महोमयः ॥ २ ॥ अर्थ : महाव्रतपति, महा, महाकान्तिथर, अधिप, महामैत्रीमय, अमेय, महोपाय और महोमय ये भगवान के आठ नाम हैं ॥ २ ॥ - महाव्रतपतिः = व्रतानि प्राणातिपातपरिहाराऽनृतवचनपरित्यागाचौर्यब्रह्मचर्याकिंचन रजनी भोजनपरिहारं लक्षणानि महन्ति व्रतानि महाव्रतानि तेषां पतिः रक्षक: स्वामी महाव्रतपति: अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्रिभोजन परिहार लक्षण वाले महान् व्रतों के पति, रक्षक, स्वामी होनेसे महाव्रतपति हैं। ८ मह्यः = महे यज्ञे नियुक्तो मह्यः पूज्यः इत्यर्थः । यज्ञ में नियुक्त होने से पूज्य हैं अतः मह्य हैं। जो महाकान्तिधरः = अनन्याऽसाधारणां शोभां धरतीति महाकान्तिधरः धृञ् धारणे । धृ धातु धारण करने के अर्थ में है। असाधारण दिव्य शोभा को धारण करने वाले होने से आप महाकांन्तिधर हैं। अधिपः = अधिप, रक्षक, सर्व जीवों के रक्षक होने से प्रभु अधिप हैं। अथवा जो 'अधिकं पिबति' लोक तथा अलोक को केवलज्ञान से व्याप्त करता है उसे अधिप कहना चाहिए। सबके अधिपति होने से भी अधिप हैं । महामैत्रीमय: = महती चासौ मैत्री महामैत्री सर्वजीवजीवनबुद्धि:, तथा निर्वृत्त: महामैत्रीमय: = सर्व प्राणियों में मैत्री या जीवन देने की बुद्धि ने मानों
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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