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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १०६ * अनन्तर्द्धिरमेयोद्धरचिन्त्यर्द्धिः समनधीः। प्रायः प्राग्रहरोऽभ्यग्रः प्रत्यग्रोऽग्रयोऽग्रिमोऽग्रजः॥७॥ अनंतर्द्धिः = अनंता ऋद्धिर्यस्य स अनंतर्द्धिः = जिनराज की ऋद्धि लक्ष्मी अनन्त होने से वे अनन्तर्द्धि हैं। अमेयर्द्धिः = अमेया अमर्यादीभूता ऋद्धिर्यस्य स अमेयर्द्धिः = अमर्याद ऋद्धि के धारक होने से अमेयर्द्धि हैं। अचिन्त्यर्द्धिः = अचिन्त्या चिन्तयितुमशक्या ऋद्धिर्यस्य स अचिन्त्यर्द्धि: - जिनकी ऋद्धि का चिन्तन करना अशक्य है, ऐसे प्रभु को अचिन्त्यर्द्धि कहना योग्य ही है। समग्रधीः = समग्रा परिपूर्णा ज्ञेयप्रमाणा धीः बुद्धिः केवलज्ञानं यस्येति समनधीः = जिनेश्वर की धी: केवलज्ञान बुद्धि समग्र परिपूर्ण ज्ञेय-जीवादि पदार्थों को जानती है। अतः वे समग्रधी हैं उनकी बुद्धि से बाहर नहीं जाने गये पदार्थ हैं ही नहीं। प्राग्यः = प्राग्रे भवः प्रायः 'अनाद्यत्' = सबसे प्रथम श्रेष्ठपना पाने योग्य है भव जिनका ऐसे जिनराज प्राग्र्य हैं। वा सब के मुख्य होने से आप प्राग्य हैं। प्राग्रहरः = प्रकृष्टमग्रं हरतीति प्राग्रहरः = उत्कृष्ट प्रधान पद धारण करने वाले। अथवा प्रत्येक मांगलिक कार्य में सर्व-प्रथम आपका स्मरण किया जाता है, इसलिए प्रागहर कहे जाते हैं। अभ्यग्रः = अभिमुखमग्रमस्य स अभ्यग्रः = लोक का अग्र भाग प्राप्त करने के सम्मुख हैं इसलिए अभ्यन हैं। प्रत्यग्रः = प्रेत्यान्तं गृहीतमनं येन स प्रत्यग्रः = आप समस्त लोगों से विलक्षण हैं, नूतन हैं, अग्र ग्रहणीय हैं इसलिए प्रत्यग्र हैं। ____ अग्रयः = अग्रे भवो अग्रयः 'अग्राद्यत्' - प्रधान पद को धारण करने वाले होने से अग्रय हैं। १. महापुराण, पृ. ६१७
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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