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________________ * जिनसहस्रनाम टीका ९४ - महान् हैं। 'पृ' धातु पालन और पूरण अर्थ में है। पालन-पोषण करने वाले होने से वा तीर्थंकरों में आदि होने से भी पुरुष हैं । प्रतिष्ठाप्रभवः = प्रतिष्ठायाः स्थैर्यस्य प्रभवः उत्पत्तिर्यस्मात् स प्रतिष्ठाप्रभवः = भगवान ने जगत् में स्थैर्य की प्रभव उत्पत्ति की। असि-मष्यादि जीवननिर्वाह के साधनों का उपदेश दिया, उससे प्रजा के जीवन को स्थिरता प्राप्त हुई और धर्म का उपदेश देकर स्वर्ग तथा मोक्ष में जीवों के स्थिरता की उत्पत्ति की। प्रतिष्ठा का अर्थ स्थैर्य है- आप प्रतिष्ठा, सम्मान वा स्थिति का कारण होने से प्रतिष्ठाप्रभव हैं । ' हेतुः = हि गतौ हिनोति जानातीति हेतु: 'कमिमनिजनिवसिहिभ्यश्च तुन्' = भगवान केवलज्ञान से चराचर जगत् को जानते हैं। अतः हेतु हैं । 'हि' धातु गमन, जानने आदि अनेक अर्थ में है, स्व में गमन करते, स्त्र पर को जानते हैं अतः हेतु हैं । उत्तम कार्यों के उत्पादक होने से भी आप हेतु हैं । - भुवनैकपितामहः = भुवनानां अधः ऊर्ध्वः मध्यलोकस्थितभव्यलोकानामेकोऽद्वितीय पितामहः पितुः पिता भुवनैक पितामहः = भगवान अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक में स्थित भव्य लोगों के लिए अद्वितीय पितामह थे इसलिए वे भुवनैकपितामह माने गये। अर्थात् तीन लोक में आप अद्वितीय गुरु वा रक्षक हैं अतः पितामह हैं । इस प्रकार श्रीमद् अमरकीर्ति विरचित जिनसहस्रनाम टीका का चौथा अधिकार पूर्ण हुआ । ॐ पञ्चमोऽध्यायः (श्रीवृक्षादिशतम् ) श्रीवृक्षलक्षणः श्लक्ष्णो लक्षण्यः शुभलक्षणः । निरक्षः पुण्डरीकाक्षः पुष्कलः पुष्करेक्षणः ।। १ ।। १. प्रतिष्ठाप्रसव भी पाठ है ।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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