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________________ *११ की सुगंध का प्रेमी भ्रमर कहा है। भरत महाराज ने कैलास पर्वत पर भगवान आदीश्वर प्रभु के समवसरण में जाकर भगवान की अत्यन्त सुन्दर तथा भावपूर्ण स्तुति की। उसके अन्त में वे कहते हैं भगवन् ! त्वद्गुणस्तोत्रात् यन्मया पुण्यमर्जितम्। तेनास्तु त्वत्पदाम्भोजे परा भक्तिः सदाऽपि मे।(महापुराण)॥ "हे आदिनाथ भगवन् ! आपके गुणों का स्तवन करने से जो मुझे पुण्य का लाभ हुआ है उससे मैं इसी फल की अभिलाषा करता हूँ कि मुझको आपके प्रति सदा उत्कृष्ट भक्ति प्राप्त होवे।" वीतराग की भक्ति की वर्णनातीत महिमा है। धनंजय महाकवि के पुत्र को सर्प ने डस लिया था। उस समय उन्होंने विषापहार स्तोत्र की रचना की। उससे बालक का विष दूर हो गया। विषापहार स्तोत्र का यह श्लोक विशेष महत्त्वपूर्ण है विषापहारं मणिमौषधानि, मंत्रं समुहिश्य रसायनं च। भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरंति पर्यायनामानि तवैव तानि ॥१४॥ "भगवन् ! लोग विष दूर करने के लिए मणि, औषधि, मंत्र तथा रसायन को खोजते हुए भटका करते हैं । वे यह नहीं जानते हैं कि मणि, मंत्र, औषधि, रसायन आदि यथार्थ में आपके ही नामान्तर हैं अर्थात् आपके नाम की महिमा से भयंकर रोग तथा प्राणान्तक सर्प का विष भी दूर हो सकता है।" इस पुण्य स्तुति को पढ़ते ही महाकवि का पुत्र विषमुक्त हो गया था। इन दिनों भी जिनेन्द्र स्तवन, गंधोदक आदि से अनेक व्यक्तियों द्वारा काले नाग से इसे जाने पर भी नीरोगता-प्राप्ति के समाचार सुनने को मिलते हैं। जिनभगवान की भक्ति का अर्थ है उनको अपने मनोमंदिर में विराजमान करना तथा उनकी अपूर्वताओं के प्रकाश द्वारा जीवन को समुज्ज्वल तथा परिशुद्ध बनाना । वीतराग की समीपता होने पर ही मन मलिनता से मुक्त होता है। कल्याणमन्दिर स्तोत्र में लिखा है आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन! संस्तवस्ते, नामापि पाति भवतो भवतो जगंति । तीव्रातपोपहतपांथजनान्निदाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ७ ।।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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