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________________ उपशामना-सलक्षणभेदप्ररूपणा काणि वि करणाणि अणुवसंताणि, तेणेसा देसकरणोवसामणा त्ति भण्णदे । एदस्स भावत्थो-दसणमोहणीयस्स अप्पसत्थउवसामणा णिवत्तीकरणं णिकाचणाकरणं बंधणकरणं उक्कडणकरणं उदीरणाकरणं उदयकरणमिदि एदाणि सत्त करणाणि उवसंताणि, ओकडण-परपयडिसंकमणसण्णिदाणि दोणि करणाणि अणुवसंताणि । तदो केसि पि उवसमेण केसि पि अणुवसमेण च इमा देसकरणोवसामणा णाम भवदि त्ति । १२. अधवा उवसमसेढिं चडिदस्स अणियट्टिकरणपढमसमए अप्पसत्थउपसामणाकरण-णिवत्तीकरण-णिकाचणाकरणाणि ति एदाणि तिणि वि अप्पप्पणो सरूवेण विणहाणि । एदेसि च विणासो णाम संसारावत्थाए उदय-संकमणोकड्डुक्कडणसरूवेण जाणि उवसंताणि तेसिमिदाणिं पुणो उक्कडणादिकिरियाणं करणसंभवो । एवं च संते उवसमाभावो पसज्जदि त्ति भणिदे उच्चदे १३. पुन्वं संसारावत्थाए अप्पसत्थकरणोवसामणाए उवसंताणि जादाणि पुणो तहापरिणदाणं तेसिं तिहिं करणेहिं पडिग्गहियाणं पदेसाणं तेण सरूवेण जो विणासो सो चेव देसकरणोवसामणा त्ति वच्चदे, तिण्हं करणाणं सगरूवेण विणासस्स देसकरणोवसामणाभावेणेत्थ विवक्खियत्तादो। तदो अप्पसत्थोवसामणादीणं तिण्हं करणाणं विणासे ओकडणादिकिरियाणं संभवो अणियट्टि-सुहुमेसु देसकरणोवसामणासण्णं लहदि ति एसो एत्थ भावत्थो। १४. अधवा गवंसयवेदपदेसग्गमुवसामेमाणस्स जाव सव्वोवसमं ण गच्छदि तात्पर्य यह है कि दर्शनमोहनीयकर्मसम्बन्धी अप्रशस्त उपशामना, निधत्तीकरण, निकाचनाकरण, बन्धनकरण, उत्कर्षणकरण, उदीरणाकरण और उदयकरण इस प्रकार ये सात करण उपशान्त हो जाते हैं, तथा अपकर्षणकरण और परप्रकृतिसंक्रमकरण ये दो करण अनुपशान्त रहते हैं । इसलिये किन्हीं करणोंके उपशम होनेसे और किन्हीं करणोंके अनुपशम रहनेसे इसकी देशकरणोपशामना संज्ञा है। १२. अथवा उपशमश्रेणि पर चढ़े हुए जीवके अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण ये तीनों ही करण अपने-अपने स्वरूपसे विनष्ट हो जाते हैं। इनके विनाशका अर्थ है कि संसार अवस्थामें उदय, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षणरूपसे जो कर्म उपशान्त हुए इस समय उन कर्मोकी पुनः उत्कर्षण आदि क्रियाका किया जाना सम्भव है और ऐसा होने पर उपशमका अभाव प्राप्त होता है ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं १३. पहले संसार अवस्थामें अप्रशस्त करणोपशामनाके द्वारा जो कर्म उपशान्त हुए, पुनः तीन करणोंके द्वारा ग्रहण किये गये उस प्रकारसे परिणत उन कर्मप्रदेशोंका उस रूपसे जो विनाश होता है वही यहाँ देशकरणोपशामना कही जाती है, क्योंकि तीन करणोंका अपनेरूपसे विनाश यहाँ पर देशकरणोपशामनारूपसे विवक्षित है, इसलिए अप्रशस्त उपशामना आदि तीन करणोंका विनाश होने पर अपकर्षण, उत्कर्षण आदि क्रियाओंका सम्भव होना ही अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें देशकरणोपशामना संज्ञाको प्राप्त होता है यह यहाँ भावार्थ है। ६१४. अथवा नपुसक वेदके प्रदेशजका उपशम करनेवालेके, जब तक वह सर्वोपशमको
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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