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________________ अस्सकण्णकरणपरूवणा ३६३ * जं दिस्सदि पदेसग्गं तमादिवग्गणाए बहुअं । उवरिमणंतरोवणिधाए सव्वत्थ विसेसहीणं । $ ५१०. सुगमं । एवं तदियसमये परूवणं समाणिय एत्तो उवरि वि जाव पढमाणुभागखंडय चरिमसमओ ति ताव सव्वेसु समएस एसा चैव परूवणा णिरवसेसमगंतव्वात्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भइ * जहा तदियसमए एस कमो ताव जाव पढममणुभागखंडयं चरिमसमयअणुक्किण्णं ति । $ ५११. एदम्मि अद्धाणे तदियसमयपरूवणादो णत्थि किंचि णाणत्त मिदि वृत्तं होइ । कुदो णाणत्ताभावो चे ? तं चैव ट्ठिदिखंडयं, तं चेवाणुभागसंतकम्ममणुभागबंधो अनंतगुणहीणो, सेढी असंखेज्जगुणा, समये समये असंखेज्जगुणं दव्वमोकड्डियूण अपुव्वफद्दयाणि करेमाणो अनंतराइक्कंतसमये जाणि अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तिदाणि तेसिं हेट्ठा असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ताणि णिव्व चेदि तहा चेव सु दिज्जमानयस्स दिस्समाणयस्स च पदेसग्गस्स सेढिपरूवणा कायव्वा त्ति एदेण मेदाभावादो । पढमाणुभागखंडए उक्किण्णे वि अपुव्वफद्दयादिविहाणे णे किंचि णाणत्तमत्थि, किंतु अणुभाग संत कम्मविसये तत्थ को वि भेदसंभवो अस्थि ति पदु वहाँ जो प्रदेश पुज दिखाई देता है वह आदि वर्गणा में बहुत है । आगे अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा सर्वत्र विशेषहीन विशेषहीन है । * $ ५१०. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार तीसरे समयमें प्ररूपणा समाप्त करके इससे आगे भी प्रथम अनुभागकाण्डकके अन्तिम समयके प्राप्त होनेतक सब समयों में पुरी तरह से यही प्ररूपणा जाननी चाहिये इस बातका ज्ञान कराते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * जिस प्रकार तीसरे समय में क्रम कहा है उसी प्रकार प्रथम अनुभागकाण्डक अन्तिम समयके प्राप्त होने तक जबतक अनुत्कीर्ण है तबतक यही क्रम जानना चाहिये । $ ५११. इस स्थानपर तोसरे समयकी प्ररूपणासे कुछ नानापन ( भेद) नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्यं है । शंका- नानापनका अभाव किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि वही स्थितिकाण्डक है, वही अनुभागकाण्डक है, अनुभागबन्ध अनन्तगुणहीन है, गुणश्रेणि असंख्यातगुणी है, क्योंकि समय-समय में असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके अपूर्व स्वर्धकों की रचना करता हुआ अनन्तर अतीत समयमें जिन अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना की उनके नीचे असंख्यातवें भागप्रमाण उनकी रचना करता है तथा उनमें दिये जानेवाले और दिखनेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा उसी प्रकारकी करता है इस अपेक्षा पूर्वं कथनसे इस कथनमें कोई भेद नहीं है । तथा प्रथम अनुभागकाण्डकके उत्कीर्ण होनेपर भी अपूर्व स्पर्धकों आदिके विधान में कुछ भी नानापन नहीं है । किन्तु अनुभागसत्कर्मके विषय में वहाँ कुछ भेद सम्भव है इस १. ताप्रती - विहाणे ण इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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