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________________ ३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे अण्णाणि च णिव्वत्तयदि । ५०७. विदियसमए जाणि अपुव्वाणि फद्दयाणि णिव्वत्तिदाणि तेसिमसंखेज्जदिभागो विदियसमए णिरुद्धे जो कमो परूविदो सो चेव तदियसमए वि दट्ठन्वो, ठिदि-अणुभागखंडयादिपरूवणाए णाणताणवलंभादो। णवरि विदियसमयोकड्डिददन्वादो असंखज्जगुणं दबमोकड्डियूणापुवफद्दयाणि एण्हि करेमाणो ताणि च णिवत्तेदि तदो हेट्टा अण्णाणि च णिवत्तेदि । तेसिं पुण पमाणं विदियसमए णिवत्तिदाणमपुवफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो एसो एत्थतणो विसेसो । * तस्स वि पदेसग्गस्स दिज्जमाणयस्स सेढिपरूवणं । ६५०८. वत्तइस्सामो त्ति वक्कसेसो । सेसं सुगमं । * तदियसमए अपुव्वाणमपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए पदेसग्गं बहुलं दिनदि । विदियाए वग्गणाए बिसेसहीणं । एवमणंतरोवणिधाए विसेसहीणं ताव जाव जाणि य तदियसमये अपुष्वाणमपुवफद्दयाणं चरिमादो वग्गणादो त्ति । तदो विदियसमए अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए पदेसग्गमसंखेज्जगुणहीणं । तत्तो पाए सव्वत्थ विसेसहीणं । ६५०९. गयत्थमेदं सुत्तं । अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है और अन्य अपूर्व स्पर्धकोंकी भी रचना करता है। ५०७. दूसरे समयमें जिन अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना की है। अर्थात् दूसरे समयमें जो उनका असंख्यातवाँ भागरूप क्रम कहा है वही तोसरे समयमें भी जानना चाहिये, क्योंकि यहाँपर भी स्थितिकाण्डक आदिको प्ररूपणाका भेद नहीं पाया जाता । इतनी विशेषता है कि दूसरे समयमें अपकर्षित किये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके इस समय अपूर्व स्पर्धकोंको करता हुआ उन्हींकी रचना करता है और उसके नीचे अन्य अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है। परन्तु उनका प्रमाण दूसरे समयमें रचे गये अपूर्व स्पर्धकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है-यहाँ इतना विशेष है। अब उन अपूर्व स्पर्धकोंमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा बतलावेंगे। ६५०८. इस सूत्र में 'बतलावेंगे' यह वाक्य शेष है। शेष कथन सुगम है।। के तीसरे समयमें अपूर्व अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें बहुत प्रदेशपुज देता है। दूसरी वर्गणामें विशेषहीन देता है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा तबतक विशेषहीन-विशेषहीन देता है जब जाकर तीसरे समयमें अपूर्व-अपूर्व स्पर्धकों की अन्तिम वर्गणा प्राप्त होती है । पुनः उससे दूसरे समयमें अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें असंख्यातगुणाहीन देता है । फिर वहाँसे लेकर सर्वत्र विशेषहीन देता है । ६५०९ यह सूत्र गतार्थ है।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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