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________________ ३५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे फद्दएसु दिज्जमाणस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं कादूण संपहि तत्थेव दिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणमुत्तरसुत्तमोइण्णं___ * तम्हि चेव पढमसमए जं दिस्सदि पदेसग्गं तमपुव्वफदयाणं पढमाए वग्गणाए बहुअं । पुवफदयादिवग्गणाए विसेसहीणं । $ ४८८. एत्थ सेढिपरूवणा दुविहा–अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थाणंतरोवणिधा सुगमा ति तप्परिहारेण परंपरोवणिधा एदेण सुत्तेण णिहिट्ठा दहव्वा । तं जहा–अपुन्वफद्दयादिवग्गणाए दिस्समाणपदेसग्गादो पुव्वफद्दयादिवग्गणाए दिस्समाणपदेसग्गं विसेसहीणं चेव होदि । किं कारणं ? एयगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयाणमसंखेज्जदिमागमेत्तद्धाणं चैव तत्तो उवरि चडिणेदिस्से समवट्ठाणदंसणादो । एत्थ विसेसहीणपमाणमादिवग्गणाए असंखेज्जदिमागमेत्तमिदि गहेयव्वं, चडिदद्धाणमेत्ताणं चेव वग्गविसेसाणमेत्थ परिहाणिदंसणादो। $ ४८९. ण केवलं पुव्वफद्दयादिवग्गणाए चेव दिस्समाणपदेसग्गमसंखेज्जभागहीणं, किंतु अपुव्वफदएसु वि आदीदो पहुडि जाव अणंताणि फद्दयाणि सयलापुव्वफद्दयद्धाणस्सासंखेज्जदिभागमेत्ताणि गच्छंति ताव अणंतभागहाणी होदूण तत्तो परमुवरिमसव्वद्धाणे सव्वद्धासंखेज्जभागहाणीए दिस्समाणपदेसग्गमवचिट्ठदि त्ति दहव्वं । एसा च सव्वा पुवापुव्वफदएसु दिज्जमाण-दिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणा स्पर्धर्कोमें दिये जानेवाले प्रदेशपूजकी श्रेणिप्ररूपणा करके अब वहींपर दृश्यमान प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा करनेके लिए आगेका सूत्र आया है * अब उसी अश्वकर्णकरणसम्बन्धी कालके प्रथम समयमें जो प्रदेशपुंज दिखाई देता है वह अपूर्व स्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणामें बहुत होता है। उससे पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें विशेषहीन होता है । ४८८. प्रकृतमें श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारको है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। उनमेंसे अनन्तरोपनिधा सुगम है, इसलिए उसको छोड़कर इस सूत्र द्वारा परम्परोपनिधा निर्दिष्ट की गई जाननी चाहिये । वह जैसे-अपूर्व स्पर्धाकोंकी आदि वर्गणामें दिखाई देनेवाले प्रदेशपुजसे पूर्व स्पर्णकोंकी आदि वर्गणामें दिखाई देनेवाला प्रदेशपुज विशेष हीन ही है, क्योंकि एक गुणहानिस्थानान्तरप्रमाण स्पर्धाकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण जो स्थान है उससे ऊपर चढ़कर इसका अवस्थान देखा जाता है । यहाँपर विशेष हीनका प्रमाण आदि वर्गणाके असंख्यातवें भागमात्र है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जितना अध्वान ऊपर गये हैं मात्र उतना वर्गणाविशेषोंकी इस स्थानमें हानि देखी जाती है। $ ४८९. केवल पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें ही दिखलाई देनेवाला प्रदेशज असंख्यातवें भागहीन है, किन्तु अपूर्व स्पर्षकोंमें भी आदिसे लेकर जहाँतक समस्त अपूर्व स्पर्धक अध्वानके असंख्यातवें भागप्रमाण अनन्त स्पर्धक प्राप्त होते हैं वहांतक अनन्त भागहानि होती है। तथा वहाँसे आगे उपरिम सर्व अध्वानमें सर्वदा असंख्यात भागहानिरूपसे दिखलाई देनेवाला प्रदेशपुज अवस्थित रहता है ऐसा यहाँ जानना चाहिये। पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमें यह सब दीयमान और
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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