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________________ ३४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बहुअमुवरि भणिस्समाणणिसेगपरूवणाए वि साहणभूदमिदि दट्ठव्वं । तं कथं - $ ४८१. ओकड्डुक्कड्डणभागहारादो एसो अपुव्वफद्दयागमणणिमित्तं गुणहाणी ठविभागहारो जेण कारणेणासंखेज्जगुणो तेणोकट्टिददव्वादो पदेसपिंडमिच्छिदपमाणं घेत्तूण पुव्वफद्यादिवग्गणाए सह जहा एयगोबुच्छा होदि तहा णिक्खेवदित्ति घडदे । जइ पुण ओकड्डणभागहारादो एसो भागहारो असंखेज्जगुणी होज्ज तो पुव्वफद्दयादिवग्गणाए सह एयगोवुच्छासेढीए अपुव्वफद्दयाणि णिव्वतेदिति ण वोत्तुं सक्किज्जदे, ओकड्डिदसयलदव्वे वि अपुव्वफद्दयमद्धाणेण ओट्टिदे पुव्यफद्दयादिवग्गणाए असंखेज्जदिभागस्सेवापुब्व फद्दयेग वग्गणदव्वस्स समुप्पत्तिदंसणा दो । एदस्सोवदृणं ठविय सिस्साणमेत्थ पयदत्थविसये पडिबोहो समुपायेयव्वो । संपद्दि एदं चैव अवहारकालप्पाचहुअं साहणं काढूण पुव्वापुव्व फद्दयसु तक्कालोकट्टिददव्वस्स णिसेगविण्णा सक्कमपरूवरूद्धमुत्तरमुत्तमोइण्णं * पढमसमये णित्रवत्तिज्जमाणगेसु अपुव्वफएस पुव्वफ६एहिंतो ओकहियूण पदेसग्गमपुत्र्वफद्दयाणमादिवग्गणाए बहुअं देदि । विदियाए वग्गणा विसेसहीणं देदि । एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमाए अपुब्वफद्दयवग्गणाए विसेसहीणं देदि । प्रथम समयवर्ती अश्वकर्णकरणकारक रचता है । और यह अल्पबहुत्व आगे कहे जानेवाले निषेकप्ररूपणामें भी साधनभूत है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । $ ४८१. अपकर्षण- उत्कर्षंण भागहारसे, अपूर्व स्पर्धकोंको लानेके लिये गुणहानिका स्थापित किया गया यह भागहार जिस कारण असंख्यातगुणा है इसलिए अपकर्षित किये गए द्रव्यसे प्रदेशपिण्डसम्बन्धी इच्छित प्रमाणको ग्रहण कर पूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा के साथ जिस प्रकार एक गोपुच्छा होती है उस प्रकार निक्षिप्त होता है यह घटित हो जाता है । यदि पुनः अपकर्षण- उत्कर्षण भागहारसे यह भागहार असंख्यातगुणहीन होवे तो पूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणाके साथ एक गोपुच्छाश्रेणिरूपसे अपूर्वं स्पर्धकोंकी रचना करता है यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कर्षित किये गए समस्त द्रव्यके भी अपूर्व स्पर्धक के अध्वानसे भाजित करनेपर पूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा असंख्यातवें भागप्रमाण ही अपूर्व स्पर्धकके एक वर्गणाप्रमाण द्रव्यकी उत्पत्ति देखी जाती है । अतः इसके अपवर्तनको स्थापित कर यहाँपर प्रकृत अर्थके विषय में शिष्यों को प्रतिबोधित करना चाहिये । अब इसी अवहारकालसम्बन्धी अल्पबहुत्वको साधन करके पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों से तत्काल अपकर्षित किये गए द्रव्यके निषेकोंकी रचनाके क्रमका कथन करने के लिए आगेका सूत्र आया है * प्रथम समयमें रचे जानेवाले अपूर्व स्पर्धकोंमें, पूर्व स्पर्धकोंमेंसे अपकर्षित करके अपूर्व स्पर्धकोंसम्बन्धी आदि वर्गणा में बहुत प्रदेशपुजको देता है । दूसरी वर्गणा विशेष हीन देता है। इस प्रकार अनन्तर तदनन्तर क्रमसे जाकर अपूर्व स्पर्धककी अन्तिम वर्गणामें विशेष हीन देता है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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