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________________ विषय-सूची ३७ २९० छठी मूल गाथा द्वारा स्थिति और अनुभागको चारों संज्वलनोंमें अनुभाग सत्कर्म और बन्धकी लक्ष्य में रखकर उत्कर्षण और अपकर्षण प्रवृत्ति किस क्रमसे उत्तरोत्तर होती है किस प्रमाणमें होता है इस जिज्ञासाका इसका अंकसंदृष्टिपूर्वक निर्देश ३२५ निर्देशपूर्वक व्याख्या २८७ अश्वकर्णकरणके प्रथम समयसे अपूर्व स्पर्धकोंइसमें निबद्ध एक भाष्य गाथाकी व्याख्या २८९ को रचनाका निदंश । ३२९ अपूर्व स्पर्धक और कृष्टि में अन्तरका निर्देश ३२९ अग्रस्थितिका उत्कर्षण किस स्थिति में होता है पूर्व स्पर्धक किस कर्मके कहाँसे होते हैं इसका इसका निर्देश २९० निर्देश ३३१ कषायोंकी उत्कर्षित स्थितिके उत्कृष्ट २९३ अपूर्व स्पर्धक चारों संज्वलनोंके होते हैं, इसका निक्षेपका विधान, उत्कर्षणामें अतिस्थापनाका निर्देश ३३२ निर्देश २९५ अपूर्व स्पर्धक करनेकी विधिका निर्देश ३३२ उत्कृष्ट अतिस्थापनाका निर्देश २९७ ये अपूर्व स्पर्धक लोभके देशघाति स्पर्धकोंके प्रकृतमें उपयोगी अल्पबहत्वका निर्देश नीचे किये जाते हैं इसका निर्देश ३३३ सातवीं मूल गाथाकी व्याख्या ३०२ अपूर्व स्पर्धक गणनाकी अपेक्षा कितने होते हैं। उसमें निबद्ध चार भाष्यगाथाओंका उल्लेख ३०४ इसका निर्देश कितनी स्थितिका अपकर्षण और उत्कर्षण होता प्रथम समयमें किये गये अपूर्व स्पर्धकोंके है इसमें निबद्ध प्रथम भाष्य गाथाकी अल्पबहुत्बका निर्देश ३३५ व्याख्या लोभके समान शेष माया आदि तीन कर्मोके करने की विधिका निर्देश किस अवस्थामें किस अनुभागका अपकर्षण और इन कर्मोंके अपूर्व और पूर्व स्पर्धकोंके अल्पउत्कर्षण होता है ३०८ बहुत्वका निर्देश दूसरी भाष्यगाथाके दो अर्थोंका निर्देश इन अपूर्व और पूर्व स्पर्धकोंकी परंपरोपनिधा प्रथम बन्धानुलोमकी अर्थ सहित ब्याख्या श्रेणिप्ररूपणाका निर्देश दूसरे सद्भावार्थकी व्याख्या ३१२ प्रथम समयमें निर्वयंमान अपूर्व और पूर्व उत्कर्षणमें सद्भावरूप अर्थका निर्देश ३१३ स्पर्धकोंके अल्पबहत्वका निर्देश प्रकृतमें अल्पबहत्वका निर्देश आगे इनकी उदय प्ररूपणाका निर्देश ३५५ तीसरी भाष्यगाथाकी व्याख्या ३१५ दूसरे समयमें होनेवाले कार्योंका निटेंश वृद्धि, हानि और अवस्थानका अर्थ दूसरे समयमें नये अपूर्व स्पर्धकोंके साथ प्रथम प्रकृतमें अल्पबहुत्वका निर्देश ३१८ समयके अपूर्व स्वर्धकोंके पुनः करनेका चौथी भाष्य गाथाकी व्याख्याके प्रसंगसे निर्देश उद्वर्तना और अपवर्तना कहाँ होती है और दूसरे समयमें इन स्पर्धकोंकी प्रथभादि वर्गणा कहाँ नहीं होती इसका स्पष्टीकरण ३२० ओंमें किस विधिसे प्रदेशपुंज दिया जाता अश्वकर्णकरणके पर्यायवाची नाम और उनका है इसका निर्देश अर्थ ३२२ दूसरे समयमें ये पूर्व और अपूर्व स्पर्धक किस प्रकार दिखाई देते हैं इसका निर्देश ३६१ अश्वकर्णकरणकी प्रवृत्ति अवेदभागके प्रथम तीसरे समयमे यही क्रम चालू रहता है इसका समयसे होनेका निर्देश निर्देश उस समय संज्वलनोंके स्थितिबन्ध और तीसरे समयमें दिये जानेवाले प्रदेशजकी स्थितिसत्त्वका निर्देश ३२४ श्रेणिप्ररूपणाका निर्देश ३०९ ३४८ ३१७ ३२३
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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