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________________ ३३४ जवधवलासहिदे कसायपाहुडे देसघादिफद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमणंतिमभागमेत्ता चेव सव्वपच्छिमापुव्वफद्दयचरिमवग्गणाविभागपडिच्छेदा होंति, तेण तदणंतिमभागे णिव्वत्तेदि त्ति भणिदं । संपहि एवंविहाणेण णिव्वत्तिज्जमाणाणि अपुव्वफद्दयाणि केत्तियाणि होति त्ति आसंकाए तप्पमाणावहारणद्वमुत्तरसुत्तं भणइ * ताणि पगणणादो अणंताणि पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफदयाणमसंखेजदिभागो, एत्तियमेत्ताणि ताणि अपुव्वफद्दयाणि । 5 ४५६. एदेण संखेज्जासंखेज्जपडिसेहमुहेण तेसिमभवसिद्धिएहितो अणंतगुणे सिद्धाणंतभागपमाणत्तमवहारिदं दट्ठव्वं । तं कधं ? ताणि अपुव्वफद्दयाणि पगणणादो अणंताणि होति । होंताणि वि पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयाणमसंखेज्जदिभागमेत्ताणि चैव भवंति । पुवफद्दयाणमादिवग्गणा एगेगवग्गणविसेसेण हीयमाणा जम्मि उद्देसे दुगुणहीणा होदि तमद्धाणमेगं गुणहाणिट्ठाणंतरं णाम । एदं च अभवसिद्धिएहि अणंतगुणेसिद्धाणमणंतभागमेत्तफद्दयाणि गंतूण होइ । संपहि एवंविहस्स पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरस्स अभंतरे जत्तियाणि फद्दयाणि अस्थि तेसिमसंखेज्जदिभागमेत्ताणि एदाणि अपुव्वफद्दयाणि दट्ठन्वाणि, ओकड्डुक्कड्डणभागहारादो असंखेज्जगुणेण भागहारेण पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दएसु ओवट्टिदेसु एदेखि पमाणाअपवर्तित करके उक्त पूर्वस्पर्धकके अनन्तवें भागमें अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना करता है। प्रथम देशघातिस्पर्धककी आदिवगंणाके जितने अविभागप्रतिच्छेद हैं उनके अनन्तवें भागप्रमाण ही सबसे अन्तिम अपूर्वस्पर्धकको अन्तिम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, इसलिए उनके अनन्तवें भागमें अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना करता है यह कहा है। अब इस प्रकार रचे जानेवाले अपूर्वस्पर्धक कितने होते हैं ऐसी आशंका होनेपर उनके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * वे अपूर्व स्पर्धक प्रगणनासे अनन्त होकर भी प्रदेशगुणहाणिस्थानान्तरप्रमाण स्पधेकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। ६ ४५६. इस सूत्र द्वारा संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध करके वे अभव्योंसे अनन्तमुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होते हैं ऐसा जानना चाहिये। शंका-वह कैसे? समाधान-वे अपूर्वस्पर्धक प्रगणनाकी अपेक्षा अनन्त होते हैं। इतना होते हुए भी प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरप्रमाण स्पर्धकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं। ___ पूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणा एक-एक वर्गणाविशेषसे हीन होती हुई जिस स्थानपर द्विगुणहीन (आधी) होती है उस स्थानका नाम एक गुणहानिस्थानान्तर है। यह अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक जाकर प्राप्त होता है। अब इस प्रकारके प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके भीतर जितने स्पर्धक होते हैं उनके असंख्यातवें भागप्रमाण ये अपूर्वस्पर्धक जानने चाहिये, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे असंख्यातगुणे भागहारके द्वारा प्रदेशगुणहानि १. ता आ० प्रत्योः अणंतगुणं इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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