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________________ पढमसमए णिवत्तिदअपुव्वफद्दयपरूवणा पदेसग्गस्स कइत्थं मागमोकड्डियूण पुव्वफद्दयाणुभागस्स कइत्थए भागे किंप्रमाणाणि ताणि णिब्बत्तेदि ति पुच्छिदं होदि । एवं पुच्छाविसईकयाणं तेसिं लोभादिसंजलणेसु जहाकमं परूवणं कुणमागो उत्तरं पबंधमाह - ३३३ * लोभस्स ताव, लोहसंजलणस्स पुव्वफद्दहिंतो पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागं घेत्तण पढमस्स देसघादिफद्दयस्स हेट्ठा अनंतभागे अण्णाणि अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तयदि । १४५५. चदुहं कसायाणमक्कमेणेसो पढमसमयअवेदो अपुब्वफद्दयाणि णिव्वत्तेदि । किंतु तेसिं सव्वेसिं जुगवं वोत्तुमसक्कियत्तादो लोभस्स ताव अपुव्वफद्दयकरणविहाणं वत्तइस्लामो चि जाणावणङ्कं 'लोभस्स तावेत्ति' मणिदं । ताणि च करेमाणो एदेण विहाणेण करेदित्ति जाणावणङ्कं सेससुत्तावयवणिद्देसो । तं कथं ? लोभसंजलणस्स पुव्वफद्दएहिंतो अपुव्वफद्दयकरणङ्कं पदेसग्गस्सा संखेज्जदिभागमोकड्डदि, दिवडुगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाणं पुव्वफद्दयसु जहापविभागमवट्ठिदाणमोकड्डुक्कड्डणभागहारपडि भागेण संखेज्जदिभाग मोकड्डियूण गेण्डदि त्ति भणिदं होदि । तं च पदेसग्गं घेत्तूण पुव्वफद्दयाणं पढमस्स देसघादिफद्दयस्स हेट्ठा अनंतगुणहाणीए ओवट्टियूण तदणंतिमभागे अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तेदि । पढमस्स अपकर्षित कर पूर्व स्पर्धकसम्बन्धी अनुभागके कितने भागमें कितने प्रमाणमें उन अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना कैसे करता है यह उक्त सूत्र द्वारा पृच्छा की गई है । इस प्रकार पृच्छाके विषयरूपसे स्वीकृत उनकी लोभादि संज्वलनोंमें क्रमसे प्ररूपणा करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * लोभ संज्वलनकी अपेक्षा सर्वप्रथम कहते हैं -- लोभ संज्वलन के पूर्व स्पर्धकों मेंसे प्रदेशाग्र के असंख्यातवें भागको ग्रहण कर प्रथम देशघादि स्पर्धक के नीचे अनन्तवें भागमें अन्य अपूर्व स्पर्धकोंको करता है । ४५५. यह प्रथम समयवर्ती अवेदक क्षपक जीव यद्यपि चारों कषायोंके अक्रमसे अपूर्व - स्पर्धकोंकी रचना करता है । किन्तु उन सबका एक साथ कथन करना अशक्य है, इसलिये सर्वप्रथम लोभसंज्वलन के अपूर्व स्पर्धकोंके विधानको बतलावेंगे इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'लोभस्स ताव' यह वचन कहा है । उन अपूर्वं स्पर्धकोंको करता हुआ इस विधिसे करता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए शेष सूत्रवचनोंका निर्देश किया है । शंका- वह कैसे ? समाधान — लोभसंज्वलन के पूर्व स्पर्धकोंमेंसे अपूर्व स्पर्धकों को करनेके लिए प्रदेशाग्रके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है, क्योंकि डेढ़ गुणहानिप्रमाण जो समय प्रबद्ध पूर्वस्पर्धकों में अपने विभागके अनुसार अवस्थित हैं उनमें अपकर्षण- उत्कर्षणभागहारका भाग देनेपर जो असंख्यातवाँ भाग लब्ध आवे उतनेको अपकर्षित कर ग्रहण करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और उस प्रदेश को ग्रहण कर पूर्वस्पर्धकोंके देशघातिस्पर्धक के नीचे अनन्त गुणहानिद्वारा
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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