SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * एदिस्से गाहाए अत्थविहासा कायव्वा । ९ ४३५. एदिस्से भासगाहाए अत्थविहासा वक्खाणाइरिएहिं एत्थ कायव्वा, सुगमतादोति भणिदं होदि । एवमेदम्मि गाहासुते विहासिदे तदो संकामणपट्टवगस्स सत्तण्हं मूलगाहाणमत्थविहासा समत्ता भवदि । एवं हेट्ठिमासेसत्थपडिबद्धाणं सत्तण्डंमेदासिं मूलगाहाणमत्थविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्तमस्सकण्णकरणं विहासेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं आढवे - * सत्तसु मूलगाहासु विहासिदासु तदो अस्सकण्णकरणस्स परूवणा । $ ४३६. पुव्वमस्सकण्णकरणं थवणिज्जं काढूण सत्तहं सुत्तगाहाणमत्थो विहासिदो । तदो तासु विहासिय समत्तासु एहिमस्सकण्णकरणस्स परूवणा अहिकीरदि ति भणिदं होइ । तत्थ ताव पज्जायसद्दणिद्द समुहेण अस्सकण्णकरणस्स लक्खणं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणह * अस्सकण्णकरणेत्ति वा आदोलकरणेत्ति वा ओवट्टणउव्वणकरणेत्ति वा तिण्णि णामाणि अस्सकण्णकरणस्स । $ ४३७. तत्थ अस्सकण्णकरणमिदि वुत्ते अश्वस्य कर्णः अश्वकर्णः अश्वकर्ण ३२२ * इस भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा करनी चाहिये । $ ४३५. इस भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा व्याख्यानाचार्यको यहाँपर करनी चाहिये, क्योंकि वह सुगम है यह उक्त चूर्णिसूत्रका तात्पर्य है । इस प्रकार इस गाथा सूत्रकी विभाषा करनेके बाद संक्रामणप्रस्थापकसम्बन्धी सात मूल गाथाओंकी अर्थविभाषा समाप्त होती है । इस प्रकार नीचेके (पूर्वके) सम्पूर्ण अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली इन सात मूल गाथाओंके अर्थ की विभाषा समाप्त करके अब यथावसर प्राप्त अश्वकर्णकरणकी विभाषा करते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * अब सात मूल गाथाओंकी विभाषा करनेके बाद अश्वकर्णकरणकी प्ररूपणा करते हैं । $ ४३६. पहले अश्वकर्णकरणको स्थगित करके सात सूत्रगाथाओंके अर्थकी विभाषा की । अब उनकी विभाषा समाप्त होनेपर इस समय अश्वकर्णकरणकी प्ररूपणाको अधिकृत करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसमें सर्वप्रथम पर्यायवाची शब्दोंके निर्देश द्वारा अश्वकर्णकरणके लक्षणको जताते हुए आगे सूत्रको कहते हैं * अश्वकर्णकरणके अश्वकर्णकरण, आदोलकरण अथवा अपवर्तना- उद्वर्तन करण ये तीन नाम हैं । $ ४३७, उनमेंसे अश्वकर्णकरण ऐसा कहनेपर उसका अर्थ होता है अश्वका कर्णं अश्वकर्ण ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy