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________________ खवगसेढीए सत्तमी मूलगाहा * तं जहा । ६ ३८२. सुगममेदं पयदगाहासुत्ताव यारावेक्खं पुच्छावक्कं । (१०४) ट्ठिदि - अणुभागे अंसे के के बहदि के व हरस्सेदि । केसु अवद्वाणं वा गुणेण किं वा विसेसेण ॥ १५७ ॥ ३०३ $ ३८३. एसा सत्तमी मूलगाहा द्विदि- अणुभाग विसयाणं चैव ओकड्डणुक्कड्डणाणं किंचि अत्थपदपरूवणडमोइण्णा । जइ एवं, गाढवेदव्वमिदं गाहासुत्तं, पुव्विल्लदोमूलगाहाहिं चैव ओकड्डणुक्कड्डणविसयाए जहण्णुक्कस्सणिक्खेवा इच्छावणादिपरूवणाए पवंचिदत्तादो ? ण एस दोसो, पुव्विल्लदो मूलगाहाहिं परूविदजहण्णुक्कस्सणिक्खेवाइच्छावणादिर्विसेसाणमोकड्डुक्कडणाणं पुणो वि विसेसियणेत्थ परूवणोवलंभादो । संपहि एदिस्से गाहाए किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामों । तं जहा'डिदिअणुभागे अंसे' एवं भणिदे ट्ठिदिअणुभागविसेसिदे कम्मपदेसे 'के के वढदि किमविसेसेण सव्वे चेब, आहो बंधसरिसे हीणे अहिए वा सि एसो पढमो पुच्छाणिद्देसो । 'के व हरस्सेदि' ति एत्थ वि तहा चेव ओकडणाए पुच्छाणुगमो कायव्वो । - * वह जैसे । $ ३८२. प्रकृत गाथा सूत्रके अवतारसे सम्बन्ध रखनेवाला यह पृच्छावाक्य सुगम है । * स्थित और अनुभागविषयक किन-किन कर्मप्रदेशों को बढ़ाता अथवा घटाता है, अथवा किन कर्मप्रदेशों में अवस्थान होता है । तथा यह वृद्धि, हानि और अवस्थान गुणकाररूषसे होता है या विशेषरूपसे होता है ।। १५७॥ ९ ३८३. यह सातवीं मूलगाथा स्थिति और अनुभागविषयक ही अपकर्षण और उत्कर्षणसम्बन्धी किंचित् अर्थपदकी प्ररूपणाके लिए अवतीर्ण हुई है। शंका- यदि ऐसा है तो इस गाथासूत्रको आरम्भ नहीं करना चाहिये, क्योंकि पूर्वको दो मूलगाथाओंके द्वारा ही अपकर्षण और उत्कर्षणविषयक जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप और afterror आदिकी प्ररूपणा विस्तारसे कर आये हैं ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पहलेकी दो गाथाओं द्वारा प्ररूपित जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप और अतिस्थापना आदि विशिष्ट अपकर्षण और उत्कर्षणकी फिर भी विशेषरूपसे यहाँ प्ररूपणा पाई जाती है । अब इस गाथाकी अवयवसम्बन्धी किंचित् अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह जैसे - 'हिदिअणुभागे अंसे' ऐसा कहनेपर स्थिति और अनुभागसे युक्त कर्मप्रदेश कौन-कौन बढ़ते हैं, क्या सामान्यरूपसे सभी कर्मप्रदेश बढ़ते हैं या बन्धके समान, बन्धसे हीन या बन्धसे अधिक स्थिति और अनुभागवाले कर्मप्रदेश बढ़ते हैं यह प्रथम पृच्छाका निर्देश है । 'के वा हरस्सेदि' इस प्रकार यहाँपर भी उसी प्रकार अपकर्षणविषयक पृच्छाका अनुगम करना चाहिये । इस प्रकार गाथाके पूर्वार्द्धमें
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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