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________________ खवगसेढीए छट्ठी मूलगाहा ३०१ * ओकणादो उक्कस्सगो णिक्खेवो विसेसाहिओ । ३७७. केत्तियमेत्तो विसेसो ? संखेज्जावलियमेत्तो। किं कारणं ? आवलियणुक्कस्साबाहाए एत्थ पवेसदसणादो । * उकस्सयं हिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । ३७८. केत्तियमेत्तेण ? समयाहियदोआवलियमेत्तेण । किं कारणं ? समयाहियाइच्छावणावलियाए सह बंधावलियाए वि एत्थ पवेसदसणादो। संपहि एदस्सेव विसेसपमाणस्स फुडीकरणमुत्तरसुत्तमाह * दोआवलियाओ समयुत्तराओ विसेसो । ६ ३७९. गयत्थमेदं सुत्तं । 5 ३८०. एवमेत्तिएण पबंधेण ओवडणविदियमूलगाहाए अत्थविहासा समत्ता । विशेषार्थ-उत्कर्षणकी अपेक्षा उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण बतला आये हैं। चारित्रमोहनीयके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपममेंसे उतना कम कर देनेपर उत्कर्षण की अपेक्षा उत्कृष्ट निक्षेपका उक्त प्रमाण प्राप्त होता है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । * उससे अपकर्षणकी अपेक्षा उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है। ६३७७. शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-संख्यात आवलि विशेषका प्रमाण है, क्योंकि एक आवलि कम उत्कृष्ट आबाधा का इसमें प्रवेश देखा जाता है। विशेषार्थ-उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होनेपर बन्धावलिके बाद उसकी अग्र स्थितिका अपकर्षण करनेपर यह निक्षेप प्राप्त होता है, इसलिए इसे उत्कर्षणकी अपेक्षा प्राप्त हुए पूर्वोक्त उत्कृष्ट निक्षेपसे विशेष अधिक कहा है जो एक आवलि कम उत्कृप्ट आबाधाप्रमाण प्राप्त होता है । * उससे उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। $ ३७८. शंका-कितना अधिक है ? समाधान-एक समय अधिक दो आवलिप्रमाण अधिक है, क्योंकि एक समय अधिक अतिस्थापनावलिके साथ बन्धावलिका भी इसमें प्रवेश देखा जाता है। अब इसी विशेष प्रमाणका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * वह विशेष एक समय अधिक दो आवलिप्रमाण है। 5 ३७९. यह सूत्र गतार्थ है। विशेषार्थ-अग्रस्थितिका अपकर्षण हुआ, इसलिए एक समय तो यह कम हो गया। अग्रस्थितिके नीचे एक आवलि अतिस्थापनामें गई, इसलिए एक आवलि यह कम हो गई, तथा यह बन्धावलिके बाद अपकर्षण हुआ, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिमेंसे एक आवलि और कम हो गई। इसलिये इस कमको पूर्वोक्त निक्षेपमें मिला देनेपर उत्कृष्ट सत्कर्मको इतना अधिक कहा है। 5 ३८०. इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा अपवर्ततनाविषयक मूल गाथाकी अर्थविभाषा
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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