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________________ खवगसेढी छट्ठी मूलगाहा २९९ उक्कड्डजमाणre हिदीए जहण्णिया अइच्छावणा च तुल्लाच विसेसा हियाओ । ९ ३७२. केत्तियमेत्तो विसेसो ? समयूणावलियाए तिभागो समयाहियमेत्तो । किं कारणं ? पुव्विल्लवेत्तिभागेसु तेत्तियमेत्ते पक्खित्ते संपुण्णावलियमेत्ताए णिनाघादविसयोकड्डणुक्कस्सा इच्छागणाए उक्कड्डणानिसयणिन्नाघाद - जहण्णाइच्छावणा च समुप्पत्तिदंसणादो । * अवलिया तत्तिया चेव । ९ ३७३. सुगमं । * उक्कडणा उक्कस्सिया अधिच्छावणा संखेज्जगुणा | § ३७४. किं कारणं १ समयाहियावलियणुक्कस्साबाहपमाणत्तादो । घातरूषसे उत्कर्षित की जानेवाली स्थितिकी जघन्य अतिस्थापना तुल्य होकर बिशेष अधिक है । ६ ३७२. शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान - एक समय कम आवलिका एक समय अधिक त्रिभागप्रमाण विशेषका प्रमाण है, क्योंकि पहलेके दो त्रिभागों में (एक समय कम आवलिके दो-त्रिभागों में ) उतना अर्थात् एक समय कम आवलिके एक समय अधिक त्रिभागके मिलानेपर सम्पूर्ण आवलिप्रमाण निर्व्याघातविषयक अपकर्यणकी उत्कृष्ट अतिस्थापनाकी तथा उत्कर्षणविषयक निर्व्याघात जघन्य अतिस्थापनाकी उत्पत्ति देखी जाती है । विशेषार्थ - उत्कर्षण की व्याघ्यातरूप जघन्य अतिस्थापना एक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अतिस्थापना एक समय कम आवलिप्रमाण होती है। इसमें एक समय मिलानेपर उत्कर्षणकी निर्व्याघातरूप जघन्य अतिस्थापना प्रारम्भ होती है, इसलिए सूत्रमें उत्कर्षणकी जघन्य अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण सिद्ध करनेके पहले निर्व्याघ्यात यह विशेषण लगाया है । शेष कथन सुगम है । आवलिका प्रमाण भी उतना ही है । * § ३७३. यह सूत्र सुगम है । * उससे उत्कर्ष णविषयक उत्कृष्ट अतिस्थापना संख्यातगुणी है । $ ३७४. क्योंकि वह एक समय अधिक एक आवलिसे कम उत्कृष्ट आबाधाप्रमाण है । विशेषार्थं - किसी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवने उत्कृष्ट संक्लेशसे चारित्रमोहनीय कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया । तदनन्तर बन्धावलिके बाद अनन्तर समयमें उसने अग्रस्थितिके विवक्षित परमाणुपुंजका अपकर्षण कर उदयावलिके बादकी प्रथम स्थितिसे उसे निक्षिप्त किया । तदनन्तर अगले समयमें उदयावलिके अनन्तर समयमें निक्षिप्त हुए उक्त परमाणुपु ंजके उदयावलिमें प्रविष्ट हो जानेपर उसके बादके समयमें निक्षिप्त हुए उक्त परमाणुपुजको उत्कर्षित कर उसे आबाधाके ऊपर निक्षिप्त करनेपर उत्कृष्ट अतिस्थापना एक समय अधिक एक आवलिसे कम उत्कृष्ट आबाधा प्रमाण प्राप्त होती है, इसीलिए उसे एक आवलिसे संख्यातगुणी कहा है, क्योंकि उक्त आबाघा संख्यात आवलिप्रमाण होती है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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