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________________ २८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे आहो दोसु, एवं गंतूण किं संखेज्जेसु असंखेज्जेसु वा त्ति पुच्छिदं होदि । एदेण द्विदिउक्कड्डणाविसये जहण्णुक्कस्सणिक्खेवाणं पमाणविसयं पुच्छा कया दट्ठव्वा । एत्थ एत्थतण 'च' सद्द 'तु' सद्देहिं उक्कड्डणाविसयजहण्णुक्कस्साइच्छावणाणं पि संगहो कायव्वो। ३४६ 'हरस्सेदि कदिसु एगं' एवं मणिदे कदिसु द्विदिविसेसेसु एगं डिदिविसेसमोकड्डियण संछहदि ति पुच्छाणिद्देसो कदो होदि । तदो ओकडूडणादिविसयजहण्णुक्कस्सणिक्खेवपमाणावहारणे एसो सुत्तावयवो पुच्छादुवारेण पडिबद्धो त्ति णिच्छयो कायव्वो। 'तहाणभागेसु बोद्धन्वं' इच्चेदेण वि चरिमावयवेण अणुभागविसयाणमोकड्डणुक्कड्डणाणं जहण्णुक्कस्सणिक्खेवविसयो पुच्छाणिद्देसो जहण्णुक्कस्साइच्छावणपमाणसहगओ णिबद्धो त्ति घेत्तव्वं । एवं च पुच्छामहेणेदेसु अत्थविसेसेसु पडिबद्धाए एदिस्से मूलगाहाए अत्थविहासणट्ठमेया भासगाहा होदि त्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एदिस्से एक्का भासगाहा । तिस्से समुकित्तणा च विहासा च कायव्वा। ६३४७. सुगमं । संपहि का सा एक्का भाससाहा ति आसंकाए पुच्छावक्कमाह-- स्थितिविशेषोंमें बढ़ाता है, इस प्रकार बढ़ाते हुए क्या संख्यात स्थितिविशेषोंमें बढ़ाता है या असंख्यात स्थितिविशेषोंमें बढ़ाता है ऐसी उक्त गाथासूत्र वचन द्वारा पृच्छा की गई है। इसप्रकार इस गाथा द्वारा स्थितिउत्कर्षणविषयक जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेपोंके प्रमाणके विषयमें पृच्छा की गई जाननी चाहिये । यहाँ गाथासूत्रमें आये हुए 'च' शब्द और 'तु' शब्दसे उत्कर्षणविषयक जघन्य और उत्कृष्ट अतिस्थापनाका भी संग्रह करना चाहिये । $ ३४६. 'हरस्सेदि कदिसु एगं' ऐसा कहनेपर कितने स्थितिविशेषोंमें एक स्थितिविशेषको अपकर्षित कर निक्षिप्त करता है इस प्रकार यह पृच्छाका निर्देश किया गया है। इसलिये अपकर्षण आदि विषयक जघन्य और उत्कष्ट निक्षेपके प्रमाणके अवधारण करने में यह सत्रवचन पृच्छा द्वारा निबद्ध है ऐसा निश्चय करना चाहिये । 'तहाणुभागेसु बोधव्वं' इस अन्तिम वचन द्वारा भी अनुभागविषयक अपकर्षण और उत्कर्षणके जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेपके विषयमें पृच्छाका निर्देश जघन्य और उत्कृष्ट अतिस्थापनाके साथ निबद्ध है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार पृच्छा द्वारा इन अर्थविशेषोंमें निबद्ध हुई इस मूलगाथाके अर्थकी विभाषा करनेके लिये एक भाष्यगाथा आई है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस मूलगाथाकी एक भाष्यगाथा है। उसकी समुत्कीर्तना और विभाषा करनी चाहिये । 5 ३४७. यह सूत्र सुगम है। अब वह एक भाष्यगाथा क्या है ऐसी आशंका होनेपर आगेके
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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