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________________ प्रस्तावना ३१ भी निष्पन्न करता है। साथ ही इस समय उनसे असंख्यातगुणे हीन प्रकाशवाले दूसरे नये अपूर्वं स्पर्धकों को निष्पन्न करता है । दूसरे समय इन अपूर्वं स्पर्धकों में जिस प्रदेशपुञ्जको निक्षिप्त करता है उसकी विधिकी प्ररूपणा इस प्रकार की गई है— दूसरे समयमें निष्पन्न हुए अपूर्वं स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें सबसे अधिक प्रदेशपुंज विक्षिप्त करता है । दूसरी वर्गणामें विशेष हीन प्रदेशपुञ्ज निक्षिप्त करता है । इसी प्रकार आगे भी दूसरे समयमें जितने अपूर्व स्पर्धकोंकी निस्पन्न किया है उनकी अन्तिम वर्गणा प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशेष हीन विशेष हीन प्रदेशपुञ्ज देता है । पुनः उस अन्तिम वर्गणासे प्रथम समय में जो अपूर्व स्पर्धक बिष्पन्न किये थे उनकी आदि वर्गणामें असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुञ्जको देता है। दूसरी वर्गणामें विशेष हीन प्रदेशपुञ्ज देता है। इसी प्रकार आगे भी इन स्पर्धकोंको अन्तिम वर्गंणाके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशेष हीन प्रदेशपुञ्ज देता है। इस समय किये गये इसके बाद पूर्व स्पर्धकों की आदिवर्गणामें भी विशेष होन प्रदेशपुञ्ज देता है। इसी प्रकार आगे सर्वत्र विशेष हीन, विशेष हीन प्रदेशपुञ्ज देता है । यह तो प्राचीन पूर्व स्पर्धकोंसे प्रदेशपुञ्जका अपकर्षण करके इन अपूर्व और पूर्व स्पर्धकों की प्रथमादि वर्गणाओं में किस बिधिसे निक्षेप करता है इसका उहापोह किया। आगे वह दिखाई कैसा देता है इसका निर्देश करते हुए बतलाया है कि इन अपूर्व स्पर्धकों और पूर्व स्पर्धकोंकी एक एक वगंणामें जो प्रदेशपुञ्ज दिखाई देता है वह अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें बहुत होता है । आगे शेष सव वर्गणाओंमें क्रमसे विशेष हीन, विशेष हीन होता है । यह दूसरे समयकी प्ररूपणा है । तीसरे समयकी प्ररूपणा दूसरे समयकी प्ररूपणाके समान ही कर लेनी चाहिये । तथा इसी प्रकार प्रथम अनुभाग काण्डकके अन्तिम समय तक जाननी चाहिये क्योंकि यहाँ तक वही स्थितिकाण्डक है और वही अनुभाग सत्कर्म हैं । मात्र अमुभागबन्ध अनन्तागुणा हीन होता जाता है तथा गुणश्रेणि असंख्यातगुणी होती जाती है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि प्रथम अनुभागकाण्डकका घात होनेपर जो अनुभागसत्कर्म शेष बचता है उसमें फरक है । जो इस प्रकार है - लोभसंज्वलनमें अनुभागसत्कर्म सबसे स्तोक होता है। उससे मायासंज्वलनमें अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है। उससे मानसंज्वलनमें अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है और ऊससे क्रोधसंज्वलनमें अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा होता है । आगे जब तक अश्वकर्ण करणका काल प्रवृत्त रहता है तब तक अनुभागसत्कर्म तथा अपूर्व स्पर्धक आदिके करनेका यही क्रम जानना चाहिये । अश्वकर्ण करणके प्रथम समय में जो अपूर्व स्पर्धक किये गये वे बहुत होते हैं । दूसरे समय में किये गये अपूर्व स्पर्धक असंख्यातगुणे हीन होते हैं । इस प्रकार अश्वकर्ण-करण कालके भीतर प्रत्येक समयमें जो अपूर्व स्पर्धक किये गये वे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हीन होते जाते हैं । यहाँपर उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा होनका प्रमाण लानेके लिये गुणाकार पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिये। आशय यह है कि दूसरे समयमें जो अपूर्वस्पर्धक किये जाते हैं उनमें जिन गुणकारोंका गुणा करनेपर प्रथम समयके अपूर्व स्पर्धकोंका प्रमाण उत्पन्न होता है वह पल्योपमके प्रथम वर्गमूल प्रमाण होता है । यह प्रथम समयकी प्ररूपणा है, शेष समयोंकी इसी प्रकार जानना चाहिये। आगे उन अपुर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद इस रूपमें उत्पन्न होते हैं इस बातका ज्ञात करानेके लिये कहा है कि- अन्तिम समयमें लोभ संज्वलनके अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद सबसे थोड़े होते हैं। दूसरे अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद दूने होते हैं। तीसरे
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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