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________________ २७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे विचारो, किं तु संसारावत्थाए वि ओकड्डुक्कडणाणं पत्तिक्कमो जहण्णुक्कस्साइच्छावणाणिवखेवपडिबद्धो अणुमग्गियन्वो त्ति एसो गाहापुव्वद्धे सुतत्थविणिच्छओ । ___$३१७. अहवा 'किं अंतरं करेंतो' एवं भणिदे अंतरकरणं करेमाणो एसो अंतरकरणावत्थाए तत्तो पुन्वुत्तरावत्थासु च टिदि-अणुमागे कधमुक्कड्डदि ओकड्डदि वा त्ति सुत्तत्थसंबंधो कायच्वो। 'वड्ढदि' त्ति वृत्ते उपकडदि त्ति घेत्तव्वं । 'हायदि' त्ति वुत्ते ओकडदि त्ति गहेयव्वं । 'णिरुवक्कमा च वड्डी' एवं भणिदे ओकड्डिदमुक्कड्डिदं वा पदेसग्गं णिरुवक्कम होदूण केवचिरं कालमवचिट्ठदे, किमोकड्डिदुक्कड्डिदाणंतरसमये चेव पुणो वि ओकड्डुक्कड्डण-परपयडिसंकमादिकिरियाणं पाओग्गं होदि, आहो प होदि ति भणिदं होदि । ण केवलमोकड्डुक्कडणाणमेव एसो पुच्छाणिद्देसो, किंतु परपयडिसंकमस्स वि दडव्वो, परपयडीसु संकंतं पदेसग्गं कियच्चिरं कालं णिरुवक्कम होदण चिढदि ति एदस्स वि अत्थस्स उवरि सुत्तणिबद्धपरूवणोवलंभादो। कधं पुण मूलगाहाए असंतो एसो अत्थो जाणिज्जदे १ ण, माहासुत्तस्सेदस्स देसामासयभावेण तहाविहत्थसंगहे विरोहामावादो । अधवा 'णिरुवक्कमा च' एत्थतण 'च' सद्देणाणुत्तसमुच्चयटेण परपयडिसंकमो गहेयव्वो। www चाहिए। प्रकृत विचारणा केवल क्षपकणिके सम्बन्धमें ही नहीं है, किन्तु संसार अवस्थामें भी जघन्य और उत्कृष्ट अतिस्थापना तथा निक्षेपसे सम्बन्ध रखनेवाले अपकर्षण और उत्कर्षणके प्रवृत्तिक्रमको मार्गणा कर लेनी चाहिए इस प्रकार उक्त मूलगाथाके पूर्वार्धसम्बन्धी सूत्रके अर्थका निर्णय है। ३१७. अथवा 'किं अंतरं करेंतो' ऐसा कहनेपर अन्तरकरण करता हुआ यह जीव अन्तरकरणको अवस्थामें तथा उससे पहलेको और आगेकी अवस्थाओंमें स्थिति और अनुभागको कैसे उत्कर्षित करता है या अपकर्षित करता है ऐसा इस सूत्रके अर्थका सम्बन्ध करना चाहिए । 'वडढदि' ऐसा कहनेपर उत्कर्षित करता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। तथा 'हायदि' ऐसा कहने पर अपकर्षित करता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये । 'णिरुवक्कमा च वड्ढी' ऐसा कहनेपर अपकर्षित अथवा उत्कर्षित किया गया प्रदेशपुंज निरुपक्रम होकर कितने कालतक अवस्थित रहता है ? क्या अपकर्षित और उत्कर्षित करनेके अनन्तर समयमें ही फिर भी अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रम आदि क्रियाओंके योग्य होता है या नहीं होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। केवल अपकर्षण और उत्कर्षणके सम्बन्धमें ही यह पृच्छाका निर्देश नहीं किया गया है, किन्तु परप्रकृतिसंक्रमके विषयमें भी जानना चाहिये । परप्रकृतियोंमें संक्रान्त हुआ प्रदेशज कितने कालतक निरुपक्रम होकर स्थित रहता है इस प्रकार इस अर्थ की भी आगे सूत्रमें निबद्ध की गई प्ररूपणासे उपलब्धि होती है। शंका-मूलगाथामें नहीं उपलब्ध हुआ यह अर्थ कैसे जाना जाता है. ? समाधान-नहीं, क्योंकि इस गाथासूत्रके देशामर्षकरूपसे उक्त प्रकारके अर्थके संग्रह करनेमें कोई विरोध नहीं है । अथवा 'णिरुवककमा च' या माये हुए अनुक्तका समुच्चय करनेवाले १. ता०प्रतो ओकड्डिदुमुक्कड्डि, इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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