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________________ २७३ खवगसेढीए चउत्थमूलगाहाए तदियभासगाहा भाग-14 * विहासा। ६ ३०८. सुगमं । * पदेसुदओ अस्सिं समए थोवो। से काले असंखेजगुणो । एवं सव्वत्थ । * जहा उदओ तहाँ संकमो वि कायव्वो। ६३०९. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । * पदेसबंधो चउविहाए बड्डीए चउव्विहाए हाणीए अवट्ठाणे च भजियव्यो। ६३१०. कुदो ? जोगवसेण तत्थ तहाभावोववत्तीदो। एवं विदियभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता। * एत्तो तदियाए गाहाए समुक्कित्तणा। ३११. सुगमं । (९७) गुणदो अणंतगुणहीणं वेदयदि णियमसा दु अणभागे । अहिया च पदेसग्गे गुणेण गणणादियंतेण ॥१५०॥ है। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेका विभाषाग्रन्थ अवतरित हुआ है * अव दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । $ ३०८. यह सूत्र सुगम है। * प्रदेश उदय इस समयमें सबसे स्तोक होता है । तदनन्तर समयमें असंख्यातगुणा होता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये । * जैसी प्रदेश उदयकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार प्रदेशसंक्रमकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये। ६३०९. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। * प्रदेशबन्ध चार प्रकारकी वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थानकी अपेक्षा मजनीय है। ६३१०. क्योंकि योगके कारण प्रदेशबन्धमें उक्त प्रकारसे व्यवस्था बन जाती है। इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाको अर्थविभाषा समाप्त हुई। * इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी अर्थविमाषा करते हैं। ६३११. यह सूत्र सुगम है। (९७) यह प्रस्थापक संक्रामक जीव प्रति समय नियमसे अनन्तगुणे हीन अनुभागका वेदन करता है तथा असंख्यातगुणे अधिक प्रदेशपुंजका वेदन करता है ॥१५०॥
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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