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________________ प्रस्तावना २९ प्रकृतिके स्पर्धक समाप्त होते हैं, क्योंकि दारुसमान सर्वघाति अनन्तवें भागमें ही उनकी आदि और समाप्ति देखी जाती है । पुनः इसके आगे अनुभागस्पर्धकसे लेकर मिथ्यात्वके अनुभागंकी रचना प्रारम्भ होती है। ___ इस प्रकार चारों संज्वलनोंसम्बन्धी पूर्व स्पर्धकोंमें जो सबसे जघन्य स्पर्धक है उसकी आदिवर्गणाके प्रदेशपुंजको अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन करके उन कर्मोके अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है। उसमें भी लोभसंज्वलनके प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागमें प्रथम देशघाति स्पर्धकके नीचे अनन्तगुणहानि द्वारा अपवर्तित करके पूर्व स्पर्धकोंके अनन्तवें भागमें अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है । इस प्रकार जो अपूर्व स्पर्धक प्राप्त होते हैं उनके अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा में जो अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं वे प्रथम देशघाति स्पर्धककी आदि वर्गणाके अनन्तवें भागप्रमाण ही होते हैं। प्रथम समयमें किये गये ये सब अपूर्व स्पर्धक अनन्त होकर भी एक प्रदेश गुणहानिप्रमाण स्पर्धकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। ___ इन अपूर्व स्पर्धकोंमें अविभाग प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा विचार करनेपर प्रथम समयमें जो अपूर्व स्पर्धक किये जाते हैं उनमेंसे प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणामें सबसे कम अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। उनसे दूसरे स्पर्धककी आदि वर्गणामें अनन्तवें भाग अधिक अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इस प्रकार क्रमसे जाकर द्विचरम स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेदोंसे अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणा अनन्तवें भागप्रमाण विशेष अधिक होती है। आगे अल्पबहुत्वकी दृष्टिसे विचार करनेपर प्रथम समयमें जितने स्पर्धकोंकी रचना की गई है उनमेंसे प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणा सबसे अल्प होती है। उससे अन्तिम अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा अन्तगुणी होती है। तथा उससे पूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा अनन्तगुणी होती है। ___ यहाँ लोभ संज्वलनके अपूर्व स्पर्धकोंकी जिस प्रकार प्ररूपणा की है उसी प्रकार माया, मान और क्रोधसंज्वलनके अपूर्व स्वर्धकोंकी प्ररूपणा कर लेनी चाहिये । यहाँपर इतनी विशेषता जाननी चाहिये कि अश्वकर्ण-करणके प्रारम्भमें पुरुषवेदके नवकबन्धका अनुभाग सम्भव है, पर उसके अनुभागकी न तो अपूर्व स्पर्धकरूपसे रचना ही होती है और न ही उसका काण्डकघात ही होता है। मात्र उसका जो एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध शेष रहता है उसकी निर्जराको छोड़कर अन्य कोई क्रिया नहीं होती। ___ इस विधिसे प्रथम समयमें जो अपूर्व स्पर्धक रचे जाते हैं वे क्रोधमें सवसे थोड़े होते हैं, मानमें विशेष अधिक होते हैं, मायामें विशेष अधिक होते हैं और लोभमें विशेष अधिक होते हैं। यहाँ विशेषका प्रमाण अनन्तवें भाग है। आशय यह है कि क्रोधके जितने अपूर्व स्पर्धक होते हैं उनमें अनन्तका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त होता है, क्रोधके अपूर्व स्पर्धकोंसे मानके अपूर्व स्पर्धक उतने अधिक होते हैं। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिये। और इस प्रकार अश्वकर्णकरणके प्रथम समयमें जो अपूर्व स्पर्धक निष्पन्न होते हैं उनमेंसे लोभसंज्वलनकी आदिवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद सवसे थोड़े होते हैं। उनसे मायाकी आदि वर्गणामें वे विशेष अधिक होते हैं। उनसे मानकी आदि वर्गणामें विशेष अधिक होते हैं और उनसे क्रोधको आदि वर्गणामें वे विशेष अधिक होते हैं । इस प्रकार चारों ही कषायोंके जो अपूर्व स्पर्धक निष्पन्न होते हैं उनमें चारों ही कषायोंके अन्तिम आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद समान होकर भी इन्हीके प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणाके आविभाग प्रतिच्छेदोंसे अनन्तगुणे होते हैं। इस तथ्यको अंक-संदृष्टि द्वारा विशेष समझनेके लिए इस भागके पृ० ३०३ की मूल टोका और विशेषार्थ द्रष्टव्य है। अब कितने प्रदेशपुञ्जके द्वारा इन अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना होती है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि अश्वकर्ण-करणकारकके प्रथम समयमें यह जीव जितने प्रदेशपुञ्जका अपकर्षण
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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