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________________ २८ जयधवला जब यह जीव पुरुषवेदके पुराने सत्कर्मके साथ छह नोकषायोंका क्रोधसंज्वलनमें संक्रमण करके उनकी स्वरूपसे निर्जरा कर देता है और तदनन्तर प्रथम समयमें अवेदभावको प्राप्त हो जाता है तब यह जीव उस समय अश्वकर्णकरणका कारक होता है। वहाँसे लेकर क्रोधादि संज्वलन कषायोंके अनुभाग सत्कर्मका काण्डकघात द्वारा अश्वकर्णकरणके आकारसे करनेके लिये आरम्भ करता है । ऐसा करते हुए उसके मानमें सबसे थोड़ा अनुभागसत्कर्म होता है, क्रोधमें उससे विशेष अधिक अनुभागसत्कर्म होता है, मायामें उससे विशेष अधिक अनुभागसत्कर्म होता है और लोभमें उससे विशेष अधिक अनुभागसत्कर्म होता है । यहाँपर विशेष अधिकका प्रमाण अनन्त अनुभाग स्पर्धक हैं। उसके अनुभागबन्ध भी उक्त कर्मों में इसी विधिसे प्रवत्त होता है। परन्त ऐसा करते हुए पातके लिये काण्डकको आरम्भ करता हुआ वह क्रोधमें अपने सत्कर्मके अनन्तवें भागप्रमाण सबसे थोड़े स्पर्धक ग्रहण करता है, मानमें उससे विशेष अधिक स्पर्धक ग्रहण करता है, मायामें उससे विशेष अधिक स्पर्धक ग्रहण करता है और लोभमें विशेष अधिक स्पर्धक ग्रहण करता है । ऐसा करनेसे उसके लोभादि परिपाटीके अनुसार अश्वकर्णकरणके आकारसे अवस्थान बन जाता है। इस हिसाबसे उसके लोभमें सबसे थोड़े स्पर्धक शेष रहते हैं। मायामें उनसे अनन्तगुणे स्पर्धक शेष रहते हैं, मानमें उनसे अनन्तगुणे स्पर्धक शेष रहते हैं और क्रोधमें उनसे अनन्तगुणे स्पर्धक शेष रहते हैं । यहाँ इन चारों संज्वलनोंका जो अनुभाग शेष रहा उसे जयधवला टीकामें अंक संदृष्टिद्वारा स्पष्ट किया ही गया है । इसके लिये टीका पृष्ठ ३२८ और उसे स्पष्ट करनेके लिये दिया गया विशेषार्थ देखिये।। यह अश्वकर्णकरणरूप अनुभागके करनेपर प्रथम समयमें जो स्थिति बनती है तत्सम्बन्धी प्ररूपणा है । इस प्रकार क्षपक अनिवृत्तिकरणमें जिस समय इस जोवने अश्वकर्णकरणरूप क्रिया सम्पन्न की उसी समय पूर्व स्पर्धकोंसे अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है। संसार अवस्थामें जो कभी भी नहीं प्राप्त हुए, किन्तु क्षपक श्रेणिमें अश्वकर्णकरणके कालमें जो प्राप्त किये गये और पूर्वस्पर्धकोंमेंसे अनन्तगुणी हानि द्वारा अपवर्तन करके प्राप्त हुए हैं उनकी अपूर्व स्पर्धक संज्ञा है। _यहां यह प्रश्न होता है कि पूर्व स्पर्धकोंमेंसे अनन्तगुणी हानि द्वारा अपवर्तन होकर जो अनभाग प्राप्त होता है उनको यहाँ कृष्टि क्यों नहीं कहा गया है। समाधान यह है कि यहां इस विधिसे जो अनुभाग प्राप्त होता है उनमें स्पर्धकका लक्षण घटित हो जानेसे उन्हें कृष्टि नहीं कहा गया है, क्योंकि कृष्टिगत जो अनुभाग होता है उसमें स्पर्धकके लक्षणके अनुसार क्रम वद्वि और क्रमहानि नहीं पाई जाती। जब कि इस प्रकार अश्वकर्णकरणके द्वारा प्राप्त हुए अनुभागमें क्रमवृद्धि और क्रम हानि अभी भी बनी हुई है, इसलिये इस अनुभागकी कृष्टि संज्ञा न कहकर इसे अपूर्व स्पर्धक कहा गया है । अव आगे इसी विषयको स्पष्ट किया जाता है कर्म दो प्रकारके है-देशघाति और सर्वघाति । उनमेंसे देशघाति कर्मोकी आदि वर्गणा समान होती है, क्योंकि लतासमान जघन्य स्पर्धकस्वरूपसे उसकी रचना होती है। इसी प्रकार सर्वघाति कर्मोकी मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सब कर्मोंकी आदि वर्गणा समान होती है, क्योंकि दारु समान अनुभागके अनन्तवें भागरूप देशघाति स्पर्धकोंके समाप्त होनेपर वहाँसे आगे सर्वघाति जघन्य स्पर्धकसे लेकर उन सर्वघाति कर्मोके अनुभागको रचनाका अवस्थान प्राप्त होता है। इतना अवश्य है कि मिथ्यात्व सर्वघाति जघन्य स्पर्धककी आदि वर्गणा शेष सर्वघाति कर्मोंकी आदि वर्गणाके समान नहीं होती, क्योंकि जहां सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट देशघाति स्पर्धक समाप्त होता है उससे आगे सम्यग्मिथ्यात्व सर्वघाति प्रकृतिके जघन्य स्पर्धकको आदि वर्गणा प्रारम्भ होती है। इसलिये यह मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सर्वघाति सब कर्मोकी आदि वर्गणाके समान बन जाती है। पुनः सर्वघाति जघन्य स्पर्धकसे लेकर अनन्त स्पर्धक आगे जानेपर वहाँ सम्यग्मिथ्यात्व
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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