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________________ २५७ भाग-14 खवगसेढीए विदियमूलगाहाए एक्कारसभासगाहा । दासु आबाहभंतरहिदीसु उक्कडणासंकमस्स पडिसेहो कदो दट्ठन्यो । ___ * समट्टिविगं तु संकामेज । $ २६१. एवं भणिदे जं परपयडिसंकमेण संकामिज्जदि पदेसग्गं तं बज्ममाणपयडीणं बज्झमाणाबज्झमाणहिदीसु उदयावलियं मोत्तूण सव्वत्थ समद्विदीए संकामिज्जदि ति एसो अत्थो जाणाविदो । एवं पंचमीए भासगाहाए विहासा समत्ता। (८८) संकामगपट्ठवगो माणकसायस्स वेदगो कोघं । संछुहदि अवेदेतो माणकसाये कमो सेसे ॥१४१॥ $ २६२. एसा छ?भासगाहा संकमणपट्ठवगसंबंधेण पुरदो मविस्समाणमत्थविसेसं संकमणाविसयं जाणावेदि ति । तं जहा-'संकामगपट्ठवगो' एवं भणिदे जो एसो संकामगपट्ठवगो अंतरदुसमयकदावत्थाए वट्टमाणओ सो चेव जहावृत्तपरिवाडीए णवणोकसाए संछु हिय तदो अस्सकण्णकरणादिकिरियाओ जहावसरमेव कादूण कोहसंजलणचिसणसंतकम्मं सव्वसंकमेण संछ हिय जाधे माणकसायस्स संकामणपट्ठवगो जादो ताधे कोहसंजलणदुसमयणदोआवलियमेतणवकबंधसरुवं माणसंजलणम्मि संछु हमाणो कोधमवेदेंतो माणवेदगो चेव होदूण संछु हइ, माणवेदगद्धाए दुसमयणदोद्वारा सूचित होनेवाली नीचेकी अबाधाके भीतरकी स्थितियोंमें उत्कर्षण करके निक्षिप्त करनेका निषेध किया गया जानना चाहिये। * किन्तु समान स्थितिगत द्रव्यका संक्रम करता है। $ २६१. ऐसा कहनेपर जिस प्रदेशपुजका परप्रकृतिसंक्रमके द्वारा संक्रम कराया जाता है उसे बध्यमान प्रकृतियोंकी बध्यमान और अबध्यमान स्थितियोंमें उदयावलिको छोड़कर सर्वत्र समान स्थितिमें संक्रमित करता है इस प्रकार इस अर्थका ज्ञान कराया गया है। इस प्रकार पांचवीं भाष्यगाथाकी विभाषा समाप्त हुई। - (८८) मान कषायका वेदक संक्रामकप्रस्थापक जीव क्रोधसंज्वलनका वेदन नहीं करते हुए उसे मान कषायमें संक्रमित करता है। शेष संज्वलन कषायोंमें भी यही क्रम है ॥१४॥ ६२६२. यह छटी भाष्यगाथा संक्रमणप्रस्थापकके सम्बन्धसे आगे कहे जानेवाले संक्रमणविषयक अर्थविशेषका ज्ञान कराती है। वह जैसे-संकामगपट्टवगो' ऐसा कहनेपर जो यह अन्तर द्विसमयकृत अवस्थामें विद्यमान संक्रामकप्रस्थापक जीव है वही यथोक्त परिपाटीसे नौ नोकषायोंका संक्रम करके तत्पश्चात् अश्वकर्णकरण आदि क्रियाओंको यथावसर करके क्रोधसंज्वलनके पुराने सत्कर्मका सर्वसंक्रमके द्वारा संक्रम करके जब मान कषायका संक्रामणप्रस्थापक हो जाता है तब क्रोधसंज्वलनके दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धको मानसंज्वलनमें संक्रमित करता है। उस समय यह जीव क्रोधसंज्वलनका नहीं वेदन करते हुए और मानसंज्वलनका ही वेदक होकर संक्रमित करता है, क्योंकि मानवेदक कालके दो समय कम दो आवलिप्रमाण कालके भीतर
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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