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________________ खवगसेढीए विदियमूलगाहाए सत्तमभासगाहा * एस अत्थो चत्थीए भासगाहाए भणिहिदि । $ २३८. जो एसो पढममासगाहाए णिबद्धो अत्थो आणुपुव्वीसंकमसण्णिदो सो विदिय - तदियगाहासु किंचि परूविज्जमाणो चेव चउत्थभासगाहाए पबंघेण परूविहिदि ति एसो एत्थ सुत्तत्थसन्भावो । एवं पढमभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता । * एत्तो विदियभासगाहा । $ २३९. सुगमं । (८४) संकामगो च कोधं माणं मायं तहेव लोभं च । २४९ सव्वं जाणुपुव्वी वेदादी संछुहदि कम्मं ॥ १३७॥ $ २४०. एदीए गाहाए तेरसहं पयडीणमाणुपुव्वीसंकमेण सह खवणाए परिवाडी जाणाविदा । तं कथं ? 'संकामगो च' एवं भणिदे तेरस पयडीओ संकामेमाणो एदीए परिवाडीए संकामेदिति वृत्तं होइ । 'वेदादि' त्ति वृत्ते णवं संयवेदमादिं कादूण जाणुपुव्वी इत्थीवेद - छण्णोकसाय - पुरिसवेदे संछुहिदूण तदो कसाये च कोहमाण- माया - लोभपरिवाडी संछुहदि ति भणिदं होदि । 'संछुहदि' त्ति वृत्ते परपयडीसु कामेमाणो खवेदित्ति अत्थो घेत्तव्वो । तदो णवु सयवेदमित्थिवेदं च जहाकमं पुरिसवेदे संछुहिय तदो छण्णोकसाय - पुरिसवेदे कोहसंजलणम्मि संछुहिय तं पुण नहीं कही गई परिपाटी कैसे जानी जाती है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्र को कहते हैं* यह अर्थ चौथी भाष्यगाथामें कहेंगे । $ २३८. जो यह आनुपूर्वी संक्रम संज्ञावाला अर्थ प्रथम भाष्यगाथामें निबद्ध है उसका दूसरी और तीसरी भाष्यगाथामें भी किंचित् कथन करते हुए चौथी भाष्यगाथामें विस्तारके साथ कहेंगे यह यहाँ इस सूत्र के अर्थका आशय है । इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाकी अर्थप्ररूपणा समाप्त हुई । * अब इसके आगे दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं । $ २३९. यह सूत्र सुगम है । (८४) संक्रामकप्रस्थापक जीव तीनों वेदोंसे लेकर छह नोकषाय सहित क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन सब कर्मोंका आनुपूर्वी से संक्रम करता है ॥१३७॥ $ २४०. इस भाष्यगाथामें तेरह प्रकृतियोंके आनुपूर्वी संक्रमके साथ क्षपणाकी परिपाटीका ज्ञान कराया गया है । शंका- वह कैसे ? समाधान - 'संकामगो' ऐसा कहने पर तेरह प्रकृतियोंका संक्रम करता हुआ इस परिपाटोसे संक्रम करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'वेदादी' ऐसा कहनेपर नपुंसकवेदसे लेकर आनुपूर्वी स्त्रीवेद, छह नोकषाय और पुरुषवेदका संक्रमण करके तत्पश्चात् क्रोध, मान, माया और लोभकषायका संक्रम करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'संछुहृदि' ऐसा कहनेपर पर प्रकृतियोंमें संक्रम करता हुआ क्षपणा करता है यह अर्थग्रहण करना चाहिये । इसलिए नपुंसकवेद और स्त्रीवेदको क्रमसे पुरुषवेदमें संक्रमित करके पश्चात् छह नोकषाय और पुरुषवेदको क्रोध संज्वलन ३२
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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