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________________ २४३ खवगसेढीए विदियमूलगाहाए पंचमभासगाहा * एवाणि कम्माणि सव्वत्थ णियमा ण वेदेदि । 5२१८. एदाणि अणंतरणिहिट्ठाणि कम्माणि संकामणपट्ठवगो अप्पणो सव्वावत्थासु णियमा ण वेदेदि ति गाहासुत्तस्स समुदायत्थो एदेण सुत्तेण विहासिदो होइ । * एस अत्थो एदिस्से गाहाए। $ २१९. सुगममेदं पयदगाहासुत्तत्थस्स उपसंहारवक्कं । एवं विदियमूलगाहाए विदियत्थम्मि पडिबद्धपढमभासगाहमस्सियणावेदिज्जमाणपयडिणिदेसं कादूण संपहि तत्थेव विदियभासगाहमस्सियण वेदिज्जमाणपयडीणं वेदिज्जमाणाणुमागेण सह णिद्देसं कुणमाणो इदमाह(८२) वेदे च वेदणीये सव्वावरणे तहा कसाये च । भयणिज्जो वेदेतो अभज्जगो सेसगो होदि ॥१३५॥ ६२२०. एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे । तं जहा–वेदे च' एवं भणिदे तिण्हं वेदाणमण्णदरोदएण भजियव्वो त्ति अत्थो घेत्तव्वो; पुरिसोदादीणमण्णदरो प्रकार इस गाथासूत्रके अर्थकी विभाषाकी इच्छासे आगेके सूत्रको कहते हैं * इन कर्मोको सर्वत्र नियमसे नहीं वेदता है। ६२१८. अनन्तर पूर्व निर्दिष्ट किये गये इन कर्मोंको संक्रामणप्रस्थापक जीव अपनी सनी अवस्थाओंमें नियमसे नहीं वेदता है इस प्रकार इस सूत्र द्वारा गाथासूत्रका समुच्चयरूप अर्थ कहा गया है। विशेषार्थ-मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीरबन्धन, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक संस्थान, औदारिकशरीर आंगोपांग, वर्षभनाराचसंहनन, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, विहायोगतिमेंसे कोई एक त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, कोई एक स्वर, आदेय, यशःकीर्ति, उच्छ्वास, निर्माण ये ३० प्रकृतियाँ हैं जिनका उदय और उदीरणा संक्रामकप्रस्थापकके नियमसे होती है ऐसा यहाँ समझना चाहिये। * यह इस भाष्यगाथाका अर्थ है। २१९. प्रकृत भाष्यगाथासूत्रके अर्थका यह उपसंहार वाक्य सुगम है । इस प्रकार दूसरी मूलगाथाके दूसरे अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रथम भाष्यगाथाका आलम्बन लेकर वेदी जानेवालो प्रकृतियोंका निर्देश करके अब उसी अर्थमें दूसरी भाष्यगाथाका आलम्बन लेकर वेदी जानेवाली प्रकृतियोंका वेदे जानेवाले अनुभागके साथ निर्देश करते हुए इस भाष्यगाथाको कहते हैं (८२) उक्त जीव वेदोंको, वेदनीयकर्मको, आभिनिबोधिक आदि सर्वावरण कोको और कषायोंको वेदता हुआ भजनीय है तथा इन कर्मोंके अतिरिक्त शेष कर्मोंका वेदन करता हुआ अभजनीय है ।।१३४॥ ६२२०. अब इस भाष्यगाथाका अर्थ कहते हैं। वह जैसे—'वेदे च' ऐसा कहनेपर तीन वेदोंमेंसे अन्यतर वेदके उदयकी अपेक्षा भजनीय है यह अर्थ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि पुरुषवेद
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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