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________________ २४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे समुच्चओ, एदेसि हेट्ठा चेव अप्पप्पणो पाओग्गविसये वोच्छिण्णोदयाणमेत्युदयसंभवाभावादो। $ २१६. गवरि णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीणं हेट्ठा चेव संतुच्छेदो जादो ति ण तेसिमेत्युदयवोच्छेदणिद्देसो सफलो, सुत्ते तेसिं णामणिद्देसस्स परिप्फुडमदंसणादो च । तदो गिद्दा ति वुत्ते णिदाए चेव गहणं कायव्वं, पचला ति णिद्देसेण पचलाए चेव गहणं कायव्वं, दोण्हमेदेसि कम्माणमेसो अवेदगो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थो घेत्तव्यो । कधं पुण खीणकसायदुचरिमसमए वोच्छिज्जमाणोदयाणमेदासिमेत्युदयाभावो वोत्तुं सक्किज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, पुव्वुत्तरावत्थासु अव्वत्तसरूवेण विज्जमाणोदयाणं पि तासिमेदम्मि मन्झिमावत्थाए झाणोवजोगविसेसेण पडिहयसत्तीणमुदयाभावभुवगमे विरोहाभावादो। अधवा खवगसेढीए सव्वत्थ णिद्दापयलाणमुदयो पत्थि चेवेत्ति घेत्तव्वं; माणोवजुत्तेसु तदुदयपवुत्तीए संभवाभावादो। एवमेदे कम्मसे सव्वेसु अंसेसु पयडि-डिदि-अणुभाग-पदेसमेदभिण्णेसुवट्टमाणे णियमा एसो ण वेदेदि ति सिद्धं । २१७. एत्थ अजसगित्तिणाममुवलक्खणं कादण अवेदिज्जमाणणामपयडीओ सन्वाओ चैव पसत्यापसवसरूवाओ घेत्तव्वाओ; मणुसगदि-पंचिंदियजादिआदितीसपयडीओ मोत्तूण सेसाणमेर दयादसणादो। सपहि एवंविहमेदस्स गाहासुत्तस्स अत्थं विहासिदुकामो सुत्तमुत्तर भणइयोग्य स्थानमें उदयव्युच्छित्ति हो जानेसे यहाँ इनका उदय सम्भव नहीं है। ६२१६. इतनी विशेषता है कि निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी पूर्व में ही सत्त्वव्युच्छित्ति हो जाती है, इसलिये उनकी यहाँ उदयव्युच्छित्तिका निर्देश सफल नहीं है, और सूत्र में उनका नामनिर्देश स्पष्टरूपसे नहीं दिखलाई देता। इसलिये सूत्र में 'णिहा' ऐसा कहनेपर निद्राका ही ग्रहण करना चाहिये तथा 'पचला' ऐसा निर्देश करनेसे प्रचलाका ही ग्रहण करना चाहिये,अतः इन दोनों कर्मोंका यह जीव अवेदक है यह यहां इस सूत्रके अर्थका ग्रहण करना चाहिये। शंका-यदि ऐसा है तो क्षीणकषायके द्विचरम समयमें व्युच्छिन्न होनेवाले इन कर्मोका यहाँ उदयाभाव कैसे कहा जा सकता है ? . समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि पूर्व अवस्थामें और उत्तर अवस्थामें जिनका अव्यक्तरूपसे उदय हो रहा है और जिनकी ध्यानस्वरूप उपयोगविशेषके कारण शक्ति क्षीण हो गई है ऐसे उन कर्मोंका इस मध्यकी अवस्थामें उदयाभाव स्वीकार करनेमें विरोधका अभाव है। अथवा क्षपकश्रेणिमें सर्वत्र निद्रा और प्रचलाका उदय नहीं ही है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि ध्यानमें उपयुक्त हुए जीवोंमें उन कर्मोंकी उदयप्रवृत्ति सम्भव नहीं है। इस प्रकार इन कर्मोंके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशभेदसे भेदरूप सभी अंशोंमें विद्यमान रहते हुए उनका यह जीव नियमसे वेदन नहीं करता यह सिद्ध होता है। २१७. यहाँपर अयशःकीर्ति नामकर्मको उपलक्षण करके नहीं वेदी जानेवाली सभी प्रशस्त और अप्रशस्तरूप नामकर्मकी प्रकृतियोंको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति आदि तीस प्रकृतियोंको छोड़कर शेष प्रकृतियोंका यहाँ उदय नहीं देखा जाता। अब इस
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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