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________________ खवगसेढीएं पढममूलगाहाए चउत्थभासगाहा २२९ च संछोहणमेवं पयट्टमिदि जाणावणटुं गाहासुत्तस्स चरिमावयवणिद्देसो 'झीणा संछोहणादीसु' त्ति । संछोहणा णाम परपयडिसंकगो सव्वसंकमपज्जवसाणो। आदिसदेण द्विदि-अणुभागखंडय-गुणसेढिणिज्जराणं गहणं कायव्वं । तदो एदेसु किरियाविसेसेसु कम्मक्खवणणिमित्तभूदेसु पयट्टेण संकामयपट्टवयेण पुव्वमेव खविज्जमाणा खीणा ति वृत्तं होइ । ण केवलमेदाओ चेव सोलस पयडीओ झीणाओ, किंतु अट्ठ कसाया वि। ण च तेसिं गाहासुत्तेणासंगहो आसंकियव्बो, 'अध' सद्देणाणुत्त. समुच्चयटेण तेसि पि संगहदंसणादो। संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं चुण्णिसुत्तमाह * एदाणि कम्माणि पुव्वमेव झीणाणि । एदेणेव सूचिदा अट्ट वि कसाया पुव्वमेव खविदा त्ति । $ १८१. गयत्थभेदं सुत्तं । एवं चउत्थमासगाहाए विवरणं कादूण संपहि 'संकंतं वा असंकंत' इदि एवं चेव मूलगाहाचरिमावयवमवलंबणं कादूण छसु कम्मेसु संछु द्धेसु सव्वेसि हिदिसंतकम्मपमाणावहारणटुं पंचमगाहासुत्तमवयारिज्जदे(७६) संकंतम्हि य णियमा णामा-गोदाणि वेदणीयं च । वस्सेसु असंखेज्जेसु सेसगा होंति संखेज्जे ॥१२९॥ संक्रमण इस प्रकार प्रवृत्त है इस बातका ज्ञान करानेके लिये गाथासूत्रके 'झीणा संछोहणादिसु' इस प्रकार अन्तिम चरणका निर्देश किया है। 'संछोहणा'का अर्थ जिसके अन्तमें सर्वसंक्रम है ऐसा परप्रकृतिसंक्रम है। 'आदि' शब्दसे स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और गुणश्रेणिनिर्जराका ग्रहण करना चाहिये। इसलिये कर्मकी क्षपणाकी निमित्तभूत इन क्रियाविशेषोंमें प्रवृत्त हुए संक्रामकप्रस्थापकने पहले ही क्षपित होनेवाली प्रकृतियोंका पहले ही क्षय किया। केवल ये सोलह प्रकृतियाँ ही क्षय नहीं हुईं, किन्तु आठ कषाय भी क्षयको प्राप्त हुए। गाथासूत्र द्वारा उनका संग्रह नहीं किया गया ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि अनुक्त समुच्चय करनेवाले 'अर्थ' पद द्वारा उनका भी संग्रह देखा जाता है। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेके चूर्णिसूत्रको कहते है ये कर्म पहले ही क्षय हो गये हैं। तथा इसीसे सूचित हुए आठ कषाय भी पहले ही क्षयको प्राप्त हो गये हैं। ____ १८१. यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार चौथी भाष्यगाथाका विवरण करके अब 'संकंतं वा असंकंतं' इस प्रकार मूल गाथाके इसी अन्तिम चरणका अवलम्बन करके छह कर्मों के संक्रमित हो जानेपर सभी कर्मोंके स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये पाँचवें गाथासूत्रका अवतार करते हैं (७६) छह कर्मोंके संक्रान्त होनेपर उसी समय नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्ममें प्रवृत्त होते हैं तथा शेष कर्म संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म में प्रवृत्त होते हैं ॥१२९॥
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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