SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे मासगाहाए अत्थविहासा समत्ता। संपहि 'संकंतं वा असंकंत' इदि मुलगाहाचरिमपदमस्मियण संकामणपट्ठवगस्स तदवत्थाए संछुद्धासंछु द्धपयडीओ परूवेमाणो चउत्थभासगाहामवयारेदि-- (७५) अध थीणगिद्धिकम्मं णिहाणिद्दा य पयलपयला य । __ तह णिरय-तिरियणामा झीणा संछोहणादीसु ॥१२८।। 5 १८०. एसा चउत्थी गाहा । एदीए संकामणपट्ठवएण जाणि कम्माणि पुत्रमेव संछुद्धाणि जाणि च ण संछु द्धाणि तेसिं पमाणपरिच्छेदं कादूण जिद्द सो कदो, संछुद्धपयडिणिद्देसेणेवासंछुद्धपयडीणं पि णिच्छयोववत्तीदो। तं जहा—'अथ थीणगिद्धिकम्म' इच्चादिणा गाहापुव्वद्धेण णिद्दाणिद्दा-पयलापयला थीणगिद्धि नि एदासिं तिण्हं पयडीणं पुव्वमेव संछुद्धाणं णामणिद्देसो कओ। 'तह णिरय-तिरियणामा'. इच्चेदेण वि गाहापच्छद्धावयवेण णिरय-तिरिक्खगइसहगयाणं तेरसण्हं णामपयंडोणं थीणगिद्धितिएण सह संछुद्धाणं णामणिद्देसो कओ दट्टयो, णिरय-तिरियणामणिद्देसस्स णिरय-तिरिक्खगइमहचरिदासेसणामपयडीणमुबलक्खणभावेण पवुत्तिअब्भुवगमादो। तदो एदाओ सोलसपयडीओ संकामयपट्टवयेण पुव्वमेव हेट्ठा अंतोमुहुत्तमोसरियूण सव्वसंकमेण संछुद्धा त्ति एसो एत्थ गाहासुत्तत्थसमुच्चओ। तासिं विभाषा समाप्त हुई। अब 'संकंतं वा असंकेत' इस प्रकार मूल गाथाके अन्तिम पदका आश्रय करके संक्रामणप्रस्थापकके उस अवस्थामें निर्जरित हुई और नहीं निर्जरित हुई प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हुए चौथी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं (७५) मध्यकी आठ कषायोंके साथ स्त्यानगृद्धिकर्म, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला तथा नरकगति और तिर्यञ्चगति नामकर्म सहगत प्रकृतियाँ परप्रकृति संक्रमण आदिमें संक्रमित हो गई हैं ॥१२८॥ $ १८०. यह चौथी भाष्यगाथा है । इस गाथा द्वारा संक्रामणप्रस्थापक जीवने जिन कर्मोंका पहले ही क्षय किया है और जिन कर्मोंका क्षय नहीं किया है उनके प्रमाणका परिच्छेद करके नामनिर्देश किया है, क्योंकि क्षय की गई प्रकृतियोंका निर्देश करनेसे ही नहीं क्षय हुई प्रकृतियोंका भी निश्चय हो जाता है। वह जैसे-'अथ थीणगिद्धिकम्म' इत्यादि गाथाके पूर्वार्द्ध द्वारा पहले ही क्षयको प्राप्त हुई निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन प्रकृतियोंका नामनिर्देश किया गया है। 'तह णिरयतिरिक्खणामा' इस गाथाके उत्तरार्द्ध द्वारा भी स्त्यानगद्धित्रिकके साथ क्षयको प्राप्त हुई नरकगति और तिर्यञ्चगतिके साथ प्रतिबद्ध तेरह नामकर्मकी प्रकृतियोंका नामनिर्देश किया गया जानना चाहिये, क्योंकि नरकगति और तिर्यश्चगति नामकर्मके निर्देशसे नरकगति और तिर्यश्चगतिके साथ सहचरित अशेष नामकर्मकी प्रकृतियोंके उपलक्षणरूपसे प्रवृत्ति स्वीकार की गई है। इसलिये संक्रामक प्रस्थापकने इन सोलह प्रकृतियोंका पहले ही अन्तर्मुहुर्तके नीचे उतरकर सर्वसंक्रमके द्वारा क्षय किया है यह यहाँ गाथासूत्रका समुदायार्थ है और उनका
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy