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________________ २१९ खवगसेढीए संकामयस्स सत्तमूलगाहापइण्णा णिरुमणं कादूण तत्थेदं सुत्तमणुगंतव्वमिदि बुत्तं होदि । संपहि एत्थ पडिबद्धगाहासुत्ताणं पमाणावहारणमुत्तरसुत्तं भणइ-- * तत्थ सत्त मूलगाहाओ। १६१. तम्हि अणंतरणिद्दिवविसये पडिबद्धाओ सत्त मूलगाहाओ भवंति त्ति भणिदं होइ । तत्थ मूलगाहाओ णाम सुत्तगाहाओ पुच्छामेत्तेण सूचिदाणेगत्थाओ । भासगाहाओ सव्वपेक्खाओ त्ति घेत्तव्यं । संपहि तासिं जहाकमं समुक्कित्तणं कुणमाणो पढमगाहामुत्तस्सेव तात्र सरूवणिद्देसं कुणइ (७१) संकामयपट्ठवगस्स किंटिदियाणि पुव्ववद्धाणि । __ केसु व अणुभागेसु य संकंतं वा असंकंतं ॥१२४॥ 5 १६२. अंतरकरगं ममाणिय जहाकमं णोकसायक्खवणमाढवेतो संकामणपट्ठवगो णाम । तस्स तदवत्थाए पडिबद्धाओ पुन्वुत्तसत्तमूलगाहाणं मज्झे चत्तारि मूलगाहाओ । तासु पढमा एसा मूलगाहा । संपहि एदिस्से अत्थविवरणं कस्सामो । तं जहा--'संकामयपट्टवगस्स' णवसयवेदादिकम्माणं क्खवणमाढवेत्तस्स 'पुवबद्धाणि कम्माणि किंट्ठिदिवाणि' किंपमाणाए द्विदीए वट्टति, किमेदेसि हिदिसंतकम्मं संखेज्जवस्सियमसंखेज्जवस्सियं वा होदि त्ति पुच्छिदं होदि । एवमेसो गाहापुबद्धो द्विदिसंतकम्मपमाणमुवेक्खदे । 'केसु व अणुभागेसु य' एसो गाहासुत्तविदियावयवो । विशेषमें आत्मा है इसे विवक्षित कर वहाँ यह सूत्र जानना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब प्रकृत विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले गाथासूत्रोंके प्रमाणको अवधारणा करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * इस विषयमें सात मूलगाथाएँ हैं । $ १६१. अनन्तर निर्दिष्ट इस विषयमें सम्बद्ध सात मूलगाथाएँ हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँ मूलगाथाओंसे तात्पर्य सूत्रगाथाओंसे है जो मात्र पृच्छा द्वारा सूचित होनेवाले अनेक अर्थवाली हैं। भाष्यगाथाएँ सव्यपेक्ष होती हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अब उनका क्रमसे समुत्कीर्तन करते हुए सर्वप्रथम गाथासूत्रके स्वरूपका निर्देश करते हैं (७१) संक्रमण प्रस्थापक जीवके पूर्वबद्ध कर्म किस स्थितिवाले और किन अनुभागोंमें विद्यमान हैं। कौन कर्म संक्रान्त हैं और कौन कर्म असंक्रान्त हैं ॥१२४॥ $१६२. अन्तरकरण समाप्त करके यथाक्रम नोकषायोंकी क्षपणाका आरम्भ करनेवाला जीव संक्रामणप्रस्थापक कहलाता है। उसके उस अवस्थासे सम्बन्ध रखनेवाली पूर्वोक्त सात सूत्रगाथाओंमें चार मूलगाथाएँ हैं। उनमेंसे यह प्रथम् मूलगाथा है। अब इसके अर्थका व्याख्यान करेंगे। वह जैसे-संक्रामणप्रस्थापक अर्थात् नपुसकवेद आदि कर्मोंकी क्षपणाका आरम्भ करनेवाले जीवके पूर्वबद्ध कर्म किस स्थितिवाले अर्थात् किस प्रमाणवाली स्थितिमें रहते हैं। क्या इनका स्थितिसत्कर्म संख्यात वर्षप्रमाण होता है या असंख्यात वर्षप्रमाण होता है यह पृच्छा की गई है । इस प्रकार यह गाथासूत्रका पूर्वाधं स्थितिसत्कर्मके प्रमाणकी अपेक्षा करता है । 'केसु व अणुभागेसु
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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