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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * ट्ठिदिसंतकम्मं पुण घादिकम्माणं चदुण्हं वि संखेजाणि वस्ससहस्साणि । * णामा - गोद-वेदणीयाणमसंखेजाणि वस्त्राणि । २१६ $ १५१. सुगमं । एवमेदम्मि संधिविसए द्विदिबंधादीणं पमाणं जाणाविय संपदि अइक्कं तत्थविसयं किंचि परामरसं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ -- * अंतरादो दुसमयकदादो पाये छण्णोकसाए कोधे संछुहृदिण अहि कहि वि । $ १५२. अंतरकरणाणंतरमेवाणुपुव्वी संकमस्स पारंभे जादे तदो पहुडि छण्णोकसाए पुरिसवेदमुल्लंघियूण कोहसंजलणे चैव संछुहृदि । पुरिसवेदं पि सेसक सायपरिहारेण णियमा कोहसंजलणे संछुहृदि । एवं कोहसंजलणाणं पि जहाणुपुव्वीए कमपत्ती दव्वाति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो * पुरिसवेदस्स दोआवलियासु पढमट्ठिदीए सेसासु आगाल-पडिआगालो वोच्छिष्णो । पढमट्ठिदीदो चेव उदीरणा । $१५३. पम-विदियदीणमुक्कड्डुणोकड्डणवसेण परोप्परं विसयसंकमो आगालडिआगालो ति भण्णदे । सो पुरिसवेदपढमट्ठिदीए आवलिय-पडिआवलियमेत्तसेमाए * परन्तु चारों ही घातिकर्मोंका संख्यात हजार वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म होता है। * नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोंका असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म होता है । $ १५१. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार इस सन्धिमें स्थितिबन्धादिकके प्रमाणका ज्ञान कराकर अब व्यतीत हुए अर्थ के विषय में कुछ परामर्श करते हुए आगे के सूत्र प्रबन्धको कहते हैं— * द्विसमयकृत अन्तरसे अर्थात् अन्तरकरणके तदनन्तर समय से लेकर छह नोकषाय क्रोधमें संक्रमित होते हैं, अन्य किसीमें नहीं । $ १५२. अन्तरकरणके अनन्तर ही आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ हो जानेपर वहाँसे लेकर छह नोकषाय पुरुषवेदको उल्लंघन कर क्रोधसंज्वलनमें ही संक्रमित होते हैं । पुरुषवेद भी शेष कषायों का परित्याग कर नियमसे क्रोधसंज्वलनमें संक्रमित होता है । इसी प्रकार क्रोधसंज्वलनकी भी आनुपूर्वीके अनुसार संक्रमकी प्रवृत्ति जान लेनी चाहिये यह सूत्रका भावार्थ है । * पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिमें दो आवलिकालके शेष रहनेपर आगाल - प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते हैं । प्रथम स्थितिमेंसे ही उदीरणा होती है । $ १५३. प्रथम और द्वितीय स्थिति के उत्कर्षण और अपकर्षणके कारण परस्पर कर्मपुंजके संक्रमको आगाल-प्रत्यागाल कहते हैं । सो वह पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके आवलि और प्रत्यावलि
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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