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________________ २०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे मादि कादूण सत्तण्णमेदेसि करणाणमाढवगो जादो त्ति भणिदं होदि । तत्थ णसयवेदस्य आजत्तकरणसंकामगो ति मणिदे णव॒सयवेदस्स खवणाए अब्भुज्जदो होदण पयट्टो त्ति भणिदं होदि । सेसकरणाणं पि अत्थो जहा उवसामगस्स परूविदो तहा चेव वत्तव्वो, विसेसाभावादो। ___* तदो संखेज्जेसु ट्ठिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु णqसयवेदो संकामिज्जमाणो संकामिदो। $ १३०. एवं णवसयवेदस्स भरेण खवणमाढविय संकामेमाणस्स संखेज्जेसु हिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु तदो णवुसयवेदो चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालिसरूवेण सव्वसंकमेण पुरिसवेदस्सुवरि संकामिदो त्ति भणिदं होदि । एवं गवुसयवेदं संतुहिय पुणो वि पवडमाणझाणपरिणामो तदणंतरमित्थिवेदस्स खवणमाढवेदि ति पदुप्पाएमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ तदो से काले इत्थिवेदस्स पढमसमयसंकामगो। १३१. णवुसयवेदक्खवणाणंतरमित्थिवेदं चेव खवेदि, ण सेसकम्माणि त्ति कुदो एस णियमो ? ण, अप्पसत्थपरिवाडीए कम्मक्खवणमाढवेतस्स तदविरोहादो । इन सात करणोंका आरम्भ हो जाता है यह कहा गया है। उनमेंसे 'नपुंसकवेदका आयुक्तकरण संक्रामक' ऐसा कहनेपर नपुंसकवेदकी क्षपणाके लिए उद्यत होकर प्रवृत्त होता है यह कहा गया है। शेष करणोंका अर्थ भी जैसा उपशामकके कहा गया है उसी प्रकार कहना चाहिये उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। * तदनन्तर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके जानेपर नपुंसकवेद संक्रामित होता हुआ संक्रमित कर दिया जाता है। १३०. इस प्रकार नपुंसकवेदके भरपूर क्षपणाका आरम्भ कर संक्रमण कराते हुए संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर तत्पश्चात् नपुंसकवेद अन्तिम स्थितिकाण्डकको अन्तिम फालिरूपसे सर्वसंक्रमण द्वारा पुरुषवेदके ऊपर संक्रमित कर दिया जाता है यह उक्त कथनका मथितार्थ है। इस प्रकार नपुसकवेदको क्षपणा कर फिर भी वृद्धिको प्राप्त होता हुआ ध्यान परिणाम तदनन्तर स्त्रीवेदकी क्षपणाका आरम्भ करता है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं तत्पश्चात् अनन्तर समयमें स्त्रीवेदका संक्रामक होता है। ६.१३१. नपुसकवेदको क्षपणाके अनन्तर स्त्रीवेदकी ही क्षपणा करता है शेष कर्मोंकी नहीं यह नियम किस कारणसे है ? .. समाधान-नहीं, क्योंकि अप्रशस्ततर प्रकृतियोंकी परिपाटीके अनुसार कर्मोकी क्षपणा करानेवाले जीवके उसके वैसा होनेमें विरोधका अभाव है। १. ता०प्रतौ एवं इति पाठो नास्ति ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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