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प्रस्तावना
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आगे इसी अर्थका (८४) १३७ संख्याक दूसरी भाष्य गाथा द्वारा तथा (८५) १३८ संख्याक तीसरी गाथा द्वारा और (८६) १३९ संख्याक चौथी भाष्य गाथा द्वारा आनुपूर्वी संक्रमका विशेषरूप से निर्देश करके चौथी गाथामें इन कर्मोंका प्रतिलोम संक्रम नहीं होता यह स्पष्ट किया गया है । आगे (८७) १०० संख्याक पांचवीं भाष्य गाथा द्वारा संक्रमके विषयमें नियम करते हुए बतलाया गया है कि जिस प्रकृतिका बन्ध हो रहा हो उसीमें बध्यमान और अवध्यमान सजातीय प्रकृतियोंका उत्कर्षण होकर वहीं तक संक्रम होता है । जितना उसका स्थितिबन्ध हो रहा है। उससे अथिक सत्त्व स्थितिमें संक्रम नहीं होता । आगे (८८) १४१ संख्याक छठी भाष्य गाथा द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि आगेकी संज्वलन कषायका वेदन करते समय पिछली कषायके नवक्रबन्धको उसमें संक्रमित करता है ।
(८९) १४२ संख्याक तीसरी मूल गाथा द्वारा प्रदेश और अनुभाग विषयक बन्ध, संक्रम और उदय कौन किस रूपमें होते हैं इत्यादि विषयक जिज्ञासा की गई है। इसकी चार भाष्यगाथाएँ हैं । उनमें से (९०) १४३ संख्याक प्रथम भाष्य गाथा द्वारा बन्ध, उदय और संक्रम इनमें क्रमसे अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे अनुभाग होनेका नियम किया गया है । तभा (९१) १४४ संख्याक भाष्य गाथा द्वारा क्रमसे इन्हीं तीनोंमें प्रदेशों की प्राप्ति असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे होती है यह नियम किया गया है । आगे (९२) १४५ संख्याक भाष्यगाथा द्वारा यह नियम किया गया है कि बर्तमान बन्धसे उसी समय होनेवाला उदय अनन्तगुणा होता है। किन्तु इससे अगले समय जितने अनुभागका उदय होता है उससे वर्तमान कालीन अनुभागबन्ध अनन्तगुणा होता है । (९३) १४६ संख्याक चौथी भाष्यगाथा द्वारा यह बतलाया गया है कि प्रत्येक समयमें यह जीव अनुभागकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणित हीन अनुभागका वेदक होता है और प्रदेशोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे श्रेणरूपसे प्रदेश पुञ्जका वेदक होता है ।
(९४) १४७ संख्याक चौथी मूलगाथा द्वारा यह जिज्ञासा की गई है कि अगले अगले समयमें बन्ध, संक्रम और उदय स्वस्थानकी अपेक्षा अधिक, होन या समान किसरूपमें होते हैं । इसकी तीन भाष्यगाथाएँ हैं । ( ९५ ) १४८ मंख्याक प्रथम भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि बन्ध और उदयकी अपेक्षा अनुभाग अगले अगले समयमें अनन्तगुणा हीन होता है । किन्तु संक्रम भजनीय है । कारण कि एक अनुभागकाण्ड के पतन काल तक सदृशरूपसे अनुभागसंक्रम होता है । किन्तु अनुभाग काण्डकका पतन होनेपर अगले अनुभागकाण्डक में अनुभाग संक्रम अनन्तगुणा हीन हो जाता है । आगे भी इसी प्रकार जानना चाहिये । (९६) १४९ संख्याक दूसरी भाष्यगाथा द्वारा यह बतलाया गया है कि प्रदेशपुं जकी अपेक्षा संक्रम और उदय अगले अगले समय असंख्यातगुणित श्रेणिरूपमं प्रवृत्त होते हैं। किन्तु बन्ध प्रदेशपु जकी अपेक्षा भजनीय है। कारण कि योग के अनुसार बन्धको प्राप्त होनेवाले प्रदेशपुजमें चार प्रकार की वृद्धि, चार प्रकारकी हानि और अवस्थान देखा जाता है। आगे (९७) १५० संख्याक तीसरी भाष्यगाथा द्वारा यह नियम किया गया है कि प्रति समय यह जीव उत्तरोत्तर अनन्तगुणे अनुभागका और असंख्यातगुणे प्रदेशपुञ्जका वेदन करता है ।
(९८) १५१ संख्याक पांचवीं मूल गाथा है । इसमें अन्तर करते हुए स्थिति और अनुभागका अपकर्षण और उत्कर्षण दोनों किस विधिसे होते हैं आदि विषयक जिज्ञासा की गई है। इसको तीन भाष्यगाथाएँ हैं । (९९) १५२ संख्याक प्रथम भाष्यगाथा द्वारा जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपको बतलाकर अनन्त अनुभागोंमें जघन्य अपकर्षणको यथाविधि घटित करनेको सूचना कर चूर्णिसूत्रों द्वारा निर्व्याघातविषयक अपकर्षणसम्बन्धी पूरे विषयपर प्रकाश डाला गया है । इसे विशदरूपसे समझनेके लिये पृ० २८१ के विशेषार्थपर दृष्टिपात करना चाहिये । (१००) १५३