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________________ २२ जयधवला यह प्रथम अर्थ है । यह जीव प्रकृति आदिके भेदसे किन कर्मोको वेदता है यह दूसरा अर्थ है । तथा यह जीव प्रकृति आदिके भेदसे किन कर्मोंका संक्रम करता है और किनका नहीं करता है यह तीसरा अर्थ है । इनमेंसे प्रथम अर्थको स्पष्ट करनेके लिए तीन भाष्यगाथाएँ आई हैं। (७८) १३१ संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया गया है कि यह संक्रामक प्रस्थापक जीव अन्तर करनेके बाद प्रथम समयमें मोहनीय कर्मका संख्यात लक्ष वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध करता है तथा शेष कर्मोंका असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध करता है। (७९) १३२ संख्याक दूसरी भाष्यगाथा द्वारा उक्त जीव किन प्रकृतियोंका बन्ध करता है और किन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं करता है यह स्पष्ट किया गया है। प्रकृतियोंका नाम निर्देश मूलमें किया ही है । (८०) १३३ संख्याक तीसरी भाष्यगाथा द्वारा भी पूर्वोक्त अर्थको विशेषरूपसे स्पष्ट किया गया है । मात्र अनुभागबन्धके विषयमें स्पष्ट करते हुए इसमें बतलाया है कि जिन कर्मोके सर्वघाति स्पर्धकोंकी अपवर्तना होती है अर्थात् जिन १२ लब्धिकांश प्रकृतियोंका देशघातीकरण कर आये हैं उनका यहाँ एक अन्तमुहूर्त पहलेसे लेकर द्विस्थानीय देशघाति स्पघंकरूप ही बन्ध होता है । इस प्रकार उक्त दूसरी मूल सूत्रगाथाके प्रथम अर्थकी प्ररूपणा समाप्त हुई। ____ आगे उसके दूसरे अर्थमें निबद्ध दो भाष्यगाथाओंमें से (८१) १३४ संख्याक प्रथम भाष्यगाथा द्वारा निद्रानिद्रा आदि तीन, छह नोकषाय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रका यह विवक्षित जीव नियमसे अवेदक होता है, क्योंकि इनमेंसे स्त्यानगृद्धित्रिककी प्रमत्तसंयतगुणास्थानमें, छह नोकषायोंकी अपूर्वकरणगुणस्थानके अन्तिम समयमें, अयशःकीतिकी अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें और नीचगोत्रकी संयतासंयत गुणस्थानमें उदयव्युच्छित्ति हो जाती हैं । इस भाष्यगाथामें अयशःकीर्ति नामका उल्लेख उपलक्षणरूपमें आया है। इससे नामकर्मको अन्य जिन प्रकृतियोंका यहाँ उदय नहीं पाया जाता है उन सबको ग्रहण कर लेना चाहिये। ___उक्त भाष्यगामें 'निद्रा' और 'प्रचला' शब्दका ग्रहण होनेसे यहाँ निद्रा और प्रचलाके उदयका भी प्रतिषेध किया गया है ऐसा समझना चाहिए। इसपर यह शंका होती है कि क्षीणकषायीके द्विचरम समयमें इन दोनों प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्ति होती है ऐसी अवस्थामें इन कर्मोका उदयाभाव यहां कैसे माना जा सकता है ? समाधान यह है कि ध्यानकी भूमिका होनेसे यहाँ पहलेसे ही इन दो कर्मोका अव्यक्त उदय पाया जाता है। साथ ही उपयोग विशेषके कारण इनके अनुभागकी शक्ति क्षीण होती रहती है, इसलिए इनका उदय अनुदयके समान होनेसे यहाँ इनका उदय नहीं है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। प्रारम्भसे लेकर उत्तरोत्तर यह जीव मोक्षमार्गमें आरूढ कैसे होता है और आगे कैसे बढ़ता है यह इसकी प्रक्रिया है जो हृदयंगम करने योग्य हैं । उक्त दूसरी मूल सूत्र गाथाके दूसरे अर्थमें निबद्ध (८२) १३५ संख्याक दूसरी भाष्यगाथाद्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि यह जीव तीनों वेद, दो वेदनीय, आभिनिबोधिक आदि चार ज्ञान और चार संञ्वलन इन कर्मोका भजनीयपनेसे वेदन करता है शेष जिन कर्मोंका यहाँ उदय पाया जाता है उनका नियमसे वेदन करता है। यहाँ चारों ज्ञानावरणोंके विषयमें ऐसा जानना चाहिये कि इन कर्मोंका जिनके उत्कृष्ट क्षयोपशम होता है उनके इनके देशघाति स्पर्धकोंका ही उदय होता है और जिनके इनका उत्कृष्ट क्षयोपशम नहीं होता है उनके इनके देशघाति स्पर्धकोंके साथ विवक्षित सर्वघाति स्पर्धकोंका भी उदय पाया जाता है । शेष कथन स्पष्ट हो है। अब उक्त दूसरी मूल गाथाके तीसरे अर्थमें जो छह भाष्य गाथाएँ आई हैं उनमेंसे (८३१३६) क्रमांक प्रथम भाष्य गाथा द्वारा नपुंसक वेद आदि प्रकृतियोंका आनुपूर्वी संक्रम स्वीकार करके लोभ संज्वलनका असंक्रम स्वीकार किया गया है। स्पष्टीकरण पहले कर ही आये हैं।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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