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________________ खवगसेढीए चउत्थसुत्तगाहार अवयवत्थपरूवणा १६७ घादेणोवट्टिय अवसेसं कं ठाणं पडिवज्जदि ति पुच्छामुहेण द्विदि-अणुमागघादेसु एदिस्से गाहाए पडिबद्धत्तदंसणादो। एवमेदीए गाहाए सूचिदाणं हिदि-अणुभागधादाणं पवुत्ती किमेत्थेव अधापवत्तकरणचरिमसमए होदि, आहो एत्तो उवरि पयदि ति आसंकाए णिरारेगीकरणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं___* तदो इमस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणे वहमाणस्स णत्थि द्विविधादो अणुभागघादो वा । से काले दो वि घादा पवत्तिहिति । 5 ४२. अधापबत्तकरणचरिमसमये वट्टमाणस्स इमस्स जीवस्स द्विदि-अणुभागघादसंभवो णत्थि, किंतु अधापवत्तकरणचरिमसमयादो से काले अपुव्वकरणं पविट्ठस्स एदे दो वि घादा पवत्तिहिति त्ति भणिदं होदि । जइ एवं, अधापवत्तकरणविसोहिपडिलंभो णिरत्थओ; तत्तो द्विदि-अणुभागधादादिकज्ज विसेसाणमणुवलद्धीदों त्ति णासंकणिज्जं; ठिदिअणुभागघादहेदुभूदापुवकरणपरिणामाणमुप्पत्तीए णिमित्तभावेणेदस्स सहलत्तदंसणादो । एवमेदासु चदुसु पट्ठवणमूलगाहासु विहासिदासु तदो अधापवत्तकरणद्धा समत्ता भवदि । एवमधापवत्तकरणपरूवणं समाणिय संपहि अपुवकरणविसयकज्जभेदपदुप्पायणमुबस्मिं सुत्तपबंधमाढवेइ अपवर्तित करके अवशिष्ट रहे किस स्थानको प्राप्त होते हैं इस प्रकार पृच्छा द्वारा स्थितिघात और अनुभागघातके विषयमें यह गाथा प्रतिबद्ध देखी जाती है । इस प्रकार इस गाथा द्वारा सूचित किये गए स्थितिघात और अनुभागघातकी प्रवृत्ति क्या यहीं अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें होती है अथवा इससे आगे इसको प्रवृत्ति होती है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिये आगेका सूत्र आया है * इसलिये अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें स्थित इस जीवके स्थितिघात और अनुभागपात नहीं होता। ६४२. अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान इस जीवके स्थितिघात और अनुभागघात सम्भव नहीं है, किन्तु अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयसे अनन्तर समयमें अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुए जीवके ये दोनों घात प्रवृत्त होंगे यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। शंका-यदि ऐसा है तो अधःप्रवृत्तकरणरूप विशुद्धिकी प्राप्ति निरर्थक है क्योंकि उस विशुद्धिसे स्थितिघात और अनुभागघात आदि कार्यविशेषोंकी उपलब्धि नहीं होती? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि स्थितिघात और अनुभागघातके हेतुभूत अपूर्वकरणके परिणामोंकी उत्पत्तिके निमित्तरूपसे इस करणकी सफलता देखी जाती है। इस प्रकार इन चार प्रस्थापन मूलगाथाओंकी विभाषा कर देनेपर अधःप्रवृत्तकरणकाल समाप्त होता है। इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणको प्ररूपणाको समाप्त करके अब अपूर्वकरणस्थानके कार्यमेदोंका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं १. आ प्रती -मणूवलंभादो इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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