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________________ १६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $३८. सुगमं । - * ण ताव अंतरं करेदि, पुरदो काहिदि त्ति अंतरं । $ ३९. ण ताव एत्थुद्दे से अंतरं काहिदि । किं कारणं ? अंतरकरणणिबंधणाणमणियट्टिकरणपरिणामाणमेदम्मि अवत्थाविसेसे संभवाणुवलंभादो। तदो एत्तो उवरि अपुवकरणद्धमुल्लंघियण अणियट्टिकरणद्धाए च संखेज्जेसु भागेसु बोलीणेसु तत्थुद्दे से पुरदो अंतरं काहिदि । तत्थेव च जहावसरं चरित्तमोहपयडीणं संकामगो भविस्सदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थणिच्छओ। एवं तदियगाहाए अत्थविहासा समत्ता। संपहि चउत्थसुत्तगाहाए विहासणं कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाह___* 'किंटिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवटियूण सेसाणि कं ठाणं पडिवजदि' त्ति विहासा । ४०. सुगमं । संपहि एदिस्से सुत्तगाहाए अवयवत्थविहासा सुगमा त्ति तमुन्लंघियूण समुदायत्थं चेव विहासेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एदीए गाहाए द्विदिघादो अणुभागघादो च सूचिदो भवदि । ४१. किं कारणं ? कम्हि द्विदिविसेसे वट्टमाणाणि कम्माणि कंडयघादेणोवट्टियूण कं ठाणमवसेसं पडिवज्जदि । केसु वा अणुभागेसु वट्ठमाणाणि कम्माणि कंडय 5 ३८. यह सूत्र सुगम है। * यह अन्तरको नहीं करता है, आगे करेगा। $ ३९. वह अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें स्थित जीव अन्तरको तो नहीं करता है, क्योंकि अन्तरकरणके कारणभूत अनिवृत्तिकरण परिणाम इस अवस्थाविशेषमें उपलब्ध नहीं होते। इसलिये इस आगेके अपूर्वकरणकालको उल्लंघन करके अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभागके व्यतीत होनेपर उस स्थानमें आगे अन्तर करता है। तथा वहींपर अवसर आनेपर चारित्रमोहनीयकी प्रकृतियोंका संक्रामक होगा इस प्रकार यह यहाँपर उक्त सूत्रका अर्थ निश्चय है। इस प्रकार तीसरी गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई। अब चौथी सूत्रगाथाकी विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * किस स्थितिवाले और किन अनुभागोंमें स्थित कर्मोंको अपवर्तना करके शेष रहे स्थिति और अनुभाग किस स्थानको प्राप्त होते हैं। ६४०. अब इस सूत्रगाथाके अवयवोंकी अर्थविभाषा सुगम है, इसलिये उसे उल्लंघन कर समुदायरूप अर्थकी हो विभाषा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस गाथा द्वारा स्थितिघात और अनुभागघात सूचित किया गया है । $ ४१. क्योंकि किस स्थितिमें विद्यमान कर्म काण्डकघातके द्वारा अपवर्तित करके अवशिष्ट रहे किस स्थानको प्राप्त होते हैं। तथा किन अनुभागोंमें विद्यमान कर्म काण्डकघातके द्वारा
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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