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________________ १६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 1 माणत्तादो । णामस्स सव्वाओ चेक परिवत्तमाणीओ असुहपयडीओ पुव्वमेत्र बंधेण वोच्छिण्णाओ । ताओ कदमाओ त्ति वृत्ते णिरय-तिरिक्खगइ-चउजादि-पंचासुहसंठाणपंचासुहसंघडण - णिरय-तिरिक्खग इपाओग्गाणुपुव्वि - अप्पसत्थविहायगदि - थावर - सुहुमअपज्जत्त-साहारण सरीर- अथिरासुह- दूर्भाग- दुस्सर- अणादेज्ज-अजस गित्तिणामाओ, एदासिं मिगुणहाणेसु चेव जहासंभवंबंधवोच्छेददंसण दो। ण केवलमेदाओ चेव णामपडीओ बंधेण वोच्छिणाओ, किंतु सुभाओ वि काओ वि एत्थ बंधेण वोच्छिण्णाओ ति जाणावण मणुगदिआदीणं णामणिद्दे सो कओ । मणुसगइदुगोरालियदुगवज्जरिसहसंघडणाणमसंजदसम्माइट्ठिम्मि चेव बंधवोच्छेददंसणादो । आदावुज्जोवाणं मिच्छाइट्टि - सास सम्माइट्ठी जहाकमं वोच्छिण्णबंधत्तादो । तदो णामस्स एदाओ पयडीओ बंघेण वोच्छिण्णाओ । गोदस्स णीचागोदं बंधेण वोच्छिण्णं; सासणगुणट्ठाणे चेव तस्स बंधुवरमदंसणादो | अंतराइयस्स ण एक्कस्स वि बंधवोच्छेदो । संपहि उदयवोच्छेदगवेसणमुवरिमं पबंधमाह - * थीणगिद्धितियं मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामिच्छत्त- बारसकसाय- मणुसाउगवज्जाणि आउगाणि निरयगइ-तिरिक्खगह- देवगइपाओग्गणामाओ आहारदुगं च वज्जरिसहसंघडवज्जाणि सेसाणि संघडणाणि मणुसगहविद्यमान है । नामकर्मकी परिवर्तमान सभी अशुभ प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न हैं । शंका- वे कौन हैं ? समाधान - ऐसा पूछने पर कहते हैं-नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियादि चार जाति, पाँच अशुभ संस्थान, पाँच अशुभ संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशकीर्ति नामकर्म, क्योंकि इनकी यथासम्भव नीचेके गुणस्थानों में ही बन्धव्युच्छित्ति देखी जाती है। केवल यही नामकर्मकी प्रकृतियाँ बन्धसे व्युच्छिन्न नहीं हैं, किन्तु कितनी ही शुभ प्रकृतियाँ भी यहाँ पर बन्धसे व्युच्छिन्न हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये मनुष्यगति आदिका नाम निर्देश किया है, क्योंकि मनुष्यगतिद्विक, औदारिकशरीरद्विक और वज्रर्षनाराचसंहननकी असंयतसम्यदृष्टि गुणस्थान में ही बन्धव्युच्छित्ति देखी जाती है । आतप और उद्योतकी क्रमसे मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । इसलिये नामकर्मकी ये प्रकृतियाँ भी बन्धसे व्युच्छिन्न हैं । गोत्रकर्मका नीचगोत्र बन्धसे व्युच्छिन्न है, क्योंकि सासादनगुणस्थान में ही उसकी व्युच्छित्ति देखी जाती है । अन्तरायकर्मकी एक भी प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न नहीं है । अब उदयव्युच्छित्तिका गवेषण करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं— * स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्वात्व, बारह कषाय, मनुष्यायुको छोड़कर तीन आयु, नरकगति, तिर्यञ्चगति और देवगति तथा ये तीनों आनुपूर्वी, आहारकद्विक, वञ्चर्षमनाराचसंहननको छोड़कर शेष पांच संहनन, मनुष्यगति
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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