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________________ १६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे २५. इत्थि-पुरिस-णवुसयवेदाणमण्णदरो वेदपरिणामो एदस्स होइ, तिण्हं पि तेसिमुदएण सेढिसमारोहणे पडिसेहाभावादो। णवरि दव्वदो पुरिसवेदो चेव खवगसेढिमारोहदि त्ति वत्तव्वं, तत्थ पयारंतरासंभवादो। एत्थ गदियादीणं पि विहासा कायव्वा, सुत्तस्सेदस्स देसामासयत्तादो। तदो पढमगाहाए अत्थविहासा समत्ता । संपहि बिदियगाहाए अत्थविहासणट्ठमुवरिमं पबंधमाह * 'काणि वा पुव्वबद्धाणि त्ति विहासा । 10.? २६. सुगमं । * एत्थ पयडिसंतकम्मं हिदिसंतकम्मं अणुभागसंतकम्मं पदेससंतकम्मं च मग्गियवं। $ २७. तत्थ ताव पयडिसंतकम्ममग्गणाए दसणमोहणीयअणंताणुबंधिचउक्कतिण्णिआउगाणि मोत्तूण सेसाणं कम्माणं संतकम्ममत्थि त्ति वत्तन्वं । णवरि आहारसरीरतदंगोवंगतित्थयराणि भयणिज्जाणि, तेसि सव्वजीवेसु संभवणियमाभावादो । द्विदिसंतकम्ममग्गणाए जासिं पयडीणं पयडिसंतकम्ममत्थि तासिं आउगवज्जाणमंतोकोडा. कोडिमेत्तं द्विदिसंतकम्ममिदि वत्तव्यं । अणुभागसंतकम्मं पि अप्पसत्थाणं बिट्ठाणियं पसत्थाणं चउहाणियं भवदि। पदेससंतकम्मं पि सम्वेसि कम्माणमजहण्णाणुक्कस्समेव होदि; पयारंतरासंभवादो। ... २५. स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद इनमेंसे कोई एक वेदपरिणाम होता है, क्योंकि तीनों ही वेदोंके उदयसे श्रोणिपर आरोहण करनेमें निषेध नहीं है। इतनी विशेषता है कि द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेदो ही क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है ऐसा कहना चाहिये, वहाँ अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है। यहाँपर कौन गति होती हैं आदिकी भी विभाषा कर लेना चाहिये, क्योंकि यह सूत्र देशामर्षक है। ऐसा करनेके बाद प्रथम गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई। अब दूसरी गाथाको अर्थविभाषा करने के लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं * पूर्वबद्ध कम कौन हैं इस पदकी विभाषा । ६.२६. यह सूत्र सुगम है। * यहाँ प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्मका अनुसन्धान करना चाहिये। २७. प्रकृतमें सर्वप्रथम प्रकृतिसत्कर्मका अनुसन्धान करनेपर दर्शनमोहनीय तीन, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और तीन आयु इन दश प्रकृतियोंको छोड़कर शेष कर्मोंकी सत्ता है ऐसा कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि आहारकशरीर, आहारकआंगोपांग और तीर्थकर ये प्रकृतियाँ भजनीय हैं, क्योंकि उनके सब जीवोंमें सम्भव होनेका नियम नहीं है । स्थितिसत्कर्मका अनुसन्धान करनेपर जिन प्रकृतियोंको सत्ता है उनकी आयुकर्मको छोड़कर अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिकी सत्ता है ऐसा कहना चाहिये । अनुभागसत्कर्म भी अप्रशस्त कर्मोका द्विस्थानीय और प्रशस्त कर्मोंचतुस्थानीय होता है। प्रदेशसत्कर्म भो सभी कर्मोका अजघन्य-अनुत्कृष्ट हो होता है। यहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं है।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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