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________________ १५८ जवधवलासहिदे कसायपाहुडे उवएसो । एदस्साहिप्पायो-पुधत्तवियक्कवीचारसण्णिदपढमसुक्कज्झाणाहिमुहस्सेदस्स चोदस-दस-णवपुव्वधारयस्स सुदणाणोवजोगो अवस्संभावी; तदवत्थाए णिरुद्धबझिदियपसरस्स मदियादिसेसणाणोवजोगाणमणागारोवजोगस्स च संभवाणुववत्तीदो त्ति । संपहि उवएसंतरमस्सियूणेदस्स पुणो वि उवजोगविसेसावहारणट्ठमुत्तरसुत्तमाह___* एक्को उवदेसो सुदेण वा मदीए वा चक्खुदसणेण वा अचक्खुदसणेण वा। २०. एदस्साहिप्पाओ वुच्चदे-अणंतरपरूविदेण णाएण जहा सुदोवजोगस्सेत्थ संभवो तहा तक्कारणभूदमदिणाणोवजोगस्स वि संभवो ण विरुद्धो, तस्स तण्णांतरीयत्तादो। संते च मदिणाणसंभवे चक्खु-अचक्खुदंसणोवजोगाणं पि तत्थ संभवो ण विरुज्झदे; तेहि विणा मदिणाणपवृत्तीए अणुवलंभादो त्ति । मदि-सुद-चक्खुअचक्खुदंसणोवजोगाणं व ओहि-मणपज्जवणाणोवजोगाणमोहिदंसणस्स च संमवो एत्थ किण्ण होइ त्ति णासंकणिज्जं; तहाविहसंभवस्स सुत्तेणेदेण पडिसिद्धत्तादो, एयग्गचिंताणिरोहलक्खणज्झाणपरिणामेण सह तेसि विरुद्धसहावत्तादो वा। तम्हा पयारंतरपरिहारेण सुत्तुत्तोवजोगवियप्पा चेव एत्थ होति ति णिच्छयो कायन्यो । उपदेश है। इसका अभिप्राय-पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यानके अभिमुख हुए चौदह, दस और नौ पूर्वधारी इस जीवके श्रुतज्ञानोपयोगका होना अवश्यम्भावी है, क्योंकि उस अवस्थामें जिसने बाह्य इन्द्रियोंके प्रसारका निरोध कर लिया है उसके मतिज्ञान आदि शेष ज्ञानोपयोग और अनाकार उपयोगका होना नहीं बन सकता । अब दूसरे उपदेशका आश्रय करके इस जीवके फिर भी उपयोगविशेषका अवधारण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * एक अन्य उपदेश है कि श्रुतज्ञानसे, मतिज्ञानसे, चक्षुदर्शनसे अथवा अचादर्शनसे उपयुक्त होता है। $२०. इस सूत्रके अभिप्रायका कथन करते हैं-अनन्तर कहे गये न्यायके अनुसार जिस प्रकार यहाँ श्रु तोपयोग सम्भव है उसी प्रकार उसके कारणभूत मतिज्ञानोपयोग भी सम्भव है यह विरुद्ध नहीं है, क्योंकि श्रु तज्ञान, मतिज्ञानका अविनाभावी है और मतिज्ञानके सम्भव होनेपर चक्षुदर्शनोपयोग और अचक्षुदर्शनोपयोग भी वहाँ सम्भव हैं यह भी विरुद्ध नहीं है, क्योंकि उनके बिना मतिज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। शंका-श्रु तज्ञानोपयोग, मतिज्ञानोपयोग, चक्षुदर्शनोपयोग और अचक्षुदर्शनोपयोगके समान अवधिज्ञानोपयोग, मनःपर्ययज्ञानोपयोग और अवधिदर्शन यहाँपर क्यों सम्भव नहीं है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि उस प्रकारकी सम्भावनाका इस सूत्र द्वारा निषेध कर दिया गया है अथवा एकाग्रचिन्तानिरोध लक्षण ध्यान परिणामके साथ वे विरुद्ध स्वभाववाले हैं, इसलिये प्रकारान्तरके परिहार द्वारा सूत्रमें कहे गये विकल्प ही यहांपर सम्भव हैं ऐसा निश्चय करना चाहिये ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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