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________________ १४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * चारित्तमोहणीयस्स खवणाए अधापवत्तकरणद्धा अपुव्वकरणद्धा अणियहिकरणद्धा च एदारो तिणि वि अद्धाओ एगसंबंधाओ एगावलियाए ओहिदवाओ। ६१. कसायोवसामणापरूवणाणंतरमेत्तो चारित्तमोहक्खवणाए पयदमिदि पदुप्पायणफलो 'चरित्तमोहणीयस्स खवणाए' ति सुत्तावयवो। सा वुण चरित्तमोहणीयस्स खवणा दंसणमोहक्खवणाविणाभाविणी तक्खयमणभिधाय खवगसेढिसमारोहणासंमवादो। सा पि दंसणमोहणीयक्खवणा अणंताणुबंधिविसंजोयणापुरप्सरा चेव, अण्णहा तप्पवुत्तीए अणुवलंभादो। तदो दोण्हमेदासि किरियाणमेत्थ पुन्वमेव विहासा कायव्वा; परिभासत्थविहासाए विणा पयदत्थविहासाए सुसंबद्धत्ताणुववत्तीदो। तासिं च विहासा अप्पप्पणो अहियारे पुत्वमेव वित्थरेण परूविदा ति ण पुणो एत्थ परूविज्जदे गंथगउरवभएण । तदो तदुभयविसयं किरियाविसेसं समाणिय पुणो खवगसेढिसमारोहणटुं पमत्तापमत्तगुणट्ठाणेसु सादासादबंधपरावत्तसहस्साणि कादूण खवग। सेढिपाओग्गविसोहीए विसुज्झयण खवगसेढिमारुहमाणयस्स एदाओ तिण्णि अद्धाओ विसुद्धपरिणामपंतिघडिदाओ पुन्वमेव ओट्टिदव्वाओ, एदाहिं विणा खवगोवसामणादिसव्वकिरियाणं पउत्तीए असंभवादो । * चारित्रमोहनीयकर्मकी क्षपणामें अधःप्रवृत्तकरणकाल, अपूर्वकरणकाल और अनिवृत्तिकरणकाल इन तीनों ही कालोंकी परस्पर सम्बद्ध ऊर्ध्व एक श्रेणिरूपसे रचना करनी चाहिये। १. कषायोंकी उपशामनाकी प्ररूपणाके अनन्तर आगे चारित्रमोहनीयक्षपणा नामक अधिकार प्रकृत है इस बातका कथन करनेके लिये 'चरित्तमोहणीयस्स खवणाए' यह सूत्र वचन आया है । परन्तु वह चारित्रमोहनीयकी क्षपणा दर्शनमोहनीयकी क्षपणाकी अविनाभाविनी है, क्योंकि उसका क्षय किये विना क्षपकणिपर आरोहण करना असम्भव है और वह दर्शनमोहनीयकी क्षपणा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक ही होती है, अन्यथा दर्शनमोहनीयकी क्षपणाप्रवृत्ति नहीं पाई जाती, इसलिये इन दोनों ही क्रियाओंकी यहाँपर पहले ही विभाषा करनी चाहिये, क्योंकि परिभाषित अर्थकी विभाषा किये बिना प्रकृत अर्थकी विभाषा सुसम्बद्ध नहीं बन सकती। किन्तु उन दोनोंकी विभाषा अपने-अपने अधिकारमें पहले ही कर आये हैं (देखो पु० १३ पृ० १ से लेकर १०३ तक तथा पृ० १९८ से लेकर २०१ तक), इसलिये ग्रन्थके बढ़ जानेके भयसे यहाँ उनकी पुनः प्ररूपणा नहीं की जाती है। अतः उन दोनोंको विषय करनेवाले क्रियाविशेषको समाप्त कर पुनः क्षपकोणिपर आरोहण करनेके लिये प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानोंमें साता-असाताबन्धके हजारों परावर्तन करके क्षपकणिके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होकर क्षपकश्रेणिपर आरोहण करनेवाले जीवके विशुद्ध परिणामोंकी पंक्तिरूपसे घटित इन तीनों कालोंकी सर्वप्रथम रचना करनी चाहिये, क्योंकि इन परिणामोंके बिना क्षपणा और उपशमनारूप सभी क्रियाओंकी प्रवृत्ति होना असम्भव है।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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