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________________ सिरि- जइवसहाइरिय विरइय- चुण्णिसुत्तसमणिदं सिरि-भगवंतगुरगहर भडारश्रवइट्ठ कसाय पा हु डं तस्स सिरि-वीरसेाइरियविरइया टोका जयधवला तत्थ चारित्त मोहक्खवणा नाम पंचदसमो अत्थाहियारो -:8: [चारितमोहक्खवणेत्ति अणियोगद्दारं ] मुणियपरमत्थवित्थर मुणिवरवीरेहिं सिद्धविज्जेहिं । जा संथुआ भयवदी पसियउ सुयदेवया मज्झं ॥ १ ॥ सुसुदेवयाए भत्ती सुदोवजोगोवभाविओ सम्मं । आवst णाणसिद्धि णाणफलं चावि णिव्वाणं ॥ २॥ तो सुअदेवयमिणमो तिक्खुत्तो पणमियूण भत्तीए । वोच्छामि जहासुतं चारित्तमोहस्स खवणविहिं ॥ ३ ॥ जो सब विद्याओंमें निष्णात थे और जिन्होंने परमार्थका सांगोपांग मनन किया था उन मुनिवर वीरसेन द्वारा जिस भगवती श्रुतदेवताकी स्तुति की गई वह श्रुतदेवता मुझ ( जिनसेन) पर प्रसन्न हो ॥१॥ जो श्रुतोपयोगसे सम्यक् प्रकार भावित होकर श्रुतदेवताकी भक्तिका आह्वान करता है वह सम्यग्ज्ञानकी सिद्धिपूर्वक सम्यग्ज्ञानके फलस्वरूप निर्वाणको प्राप्त करता है ॥२॥ अतः मन, वचन और कायसे इस श्रुतदेवताको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके सूत्र के अनुसार चारित्रमोहक्षपणा विधिको कहता हूँ || ३ ||
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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