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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * उवसामगस्स अणियहिस्स पढमसमए ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । ९ ३६८. किं कारणं ? अणियट्टिकरणपरिणामेहिं अपत्तवादत्तादो । * उवसामगस्स अपुत्र्वकरणस्स चरिमसमए ठिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । $ ३६९. केत्तीयमेत्तेण ? पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्ता पुव्वकरणचरिमडिदिखंडयमेत्तेण | १४४ * उवसामगस्स अपुव्वकरणस्स पढमसमए ठिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । ९ ३७०. किं कारणं ? अपुनवकरणपढमसमयडिदिसंतकम्मादो संखेज्जसहस्समेत्तेहिं द्विदिखंडएहिं संखेज्जेसु भागेसु घादिदेसु लद्धमप्पसरूवं पुव्विल्लमेदं पुण अपुव्वकरणपढमसमयडिदिसंतकम्ममपत्तवादं तेण संखेज्जगुणं जादं । एवमेत्तिएण पबंघेण 'दंसणचरित्तमोहे अद्धापरिमाणणिद्द सो' त्ति एदं गाहासुत्तावयवबीजपदमवलंबियूण पयदप्पाबहुअं परूविय संपहि पडिवदमाणसंबंधीणं चदुण्डं गाहासुत्ताणमणुभासणमेतो कायव्वमिदि पदुप्पाणट्टमुत्तरमुत्तं भणइ * एत्तो पडिवदमाणयस्स चत्तारि सुत्तगाहाओ अणुभासियव्वा । समाधान - एक स्थितिमात्र अधिक है । * उपशामक अनिवृत्तिकरण जीवके प्रथम समयमें स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है । $ ३६८. क्योंकि अनिवृत्तिकरण परिणामोंसे उसका घात नहीं हुआ है । * उपशामक अपूर्वकरण जीवके अन्तिम समयमें स्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ ३६९. शंका - कितना अधिक है ? समाधान - अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें जो पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डक होता है उतना अधिक है । * उपशामक अपूर्वकरण जीवके प्रथम समयमें स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है । ९ ३७०. क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समय में जो स्थितिसत्कर्म होता है उसमें से संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके द्वारा संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिसत्कर्मका घात हो पर अपने स्वरूपको प्राप्त हुए पूर्व स्थानका इतना स्थितिसत्कर्म शेष रहता है, परन्तु अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जो स्थितिसत्कर्म है उसका अभी घात नहीं हुआ है, इसलिए पूर्वके स्थान से यह संख्यातगुणा हो जाता है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा / दंसणचरित्तमोहे अद्धापरिमाणणिद्देसो' इस प्रकार गाथासूत्रके इस पदका अवलम्बन लेकर प्रकृत अल्पबहुत्वका कथन करके अब गिरनेवाले जीवसे सम्बन्ध रखनेवाली चार गाथासूत्रों का व्याख्यान इसके आगे करना चाहिये इस बातका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * इसके आगे गिरनेवाले जीवकी अपेक्षा चार सूत्रगाथाओंका विशेष व्याख्यान करना चाहिये ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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