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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ २५८. कुदो १ गलिदसेसगुण सेढिविसये पयारंतरासंभवादो । संपहि लोहोदएण उवदिस्स उवसामगस्स णाणत्तगवेसणद्वमुत्तरो सुत्तपबंधो -- * लोभेण उवदिस्स उवसामगस्स णाणत्तं वत्तइस्लामो । $ २५९. सुगमं । * तं जहा । ११४ $ २६०. सुगमं । * अंतरकदमेत्ते लोभस्स पढमट्ठिदिं करेदि । जेद्देही कोहेण उवहिदस्स को हस्स पढमट्ठिदी माणस्स च पढमठ्ठिदी मायाए च पढमट्ठिदी लोभस्स च सांपराइयपढमट्ठिदी तद्देही लोभस्स पढमठ्ठिदी । $ २६१. अंतरकदमेत्ते चैव सेससंजलणपरिहारेण लोहसंजलणस्स पढमडिदिमेम्मति एसो वेदिति । एदं णाणत्तमेत्थ दट्ठव्वं । किं कारणमेम्महंती लोभस्स करता है । $ २५८. क्योंकि गलित शेष गुणश्र णिके विषय में अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । विशेषार्थ - यहाँ मायाका वेदन करनेवाला जीव उपशमश्र णिपर चढ़नेके बाद नीचे गिरता है तब पुन: मायाका वेदन करने लगता है। तब उसके जो कार्यं विशेष होते हैं उनका निर्देश करते हुए बताया है कि सर्व प्रथम वह तीन प्रकारकी माया और तीन प्रकारके लोभका अपकर्षण कर उनका ज्ञानावरणादि कर्मोंके समान गुणश्र णिनिक्षेप करता है । किन्तु यह गुण णिनिक्षेप गलितशेष होनेके कारण प्रति समय जो गुणश्रेणि शेष रहती जाती है उसमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप करता है । तथा क्रमशः नीचे उतरकर मायाका वेदन करते हुए ही वह क्रमसे तीन मान और तीन क्रोधका भी अपकर्षण कर उनका भी गुणश्र णिनिक्षेप शेष कर्मोंके समान करता है । अब लोभके उदयसे चढ़े हुए उपशामक के नानापनकी गवेषणा करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * अब लोभकषायसे श्रेणिपर चढ़े हुए उपशामककी अपेक्षा नानापनको बतलावेंगे | $ २५९. यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । $ २६०. यह सूत्र भी सुगम है । * वह अन्तर किये जानेको मर्यादा करके लोभकी प्रथम स्थितिको करता है । क्रोधकषायसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीवकी जितने आयामवाली प्रथम स्थिति, मानकी प्रथम स्थिति, मायाकी प्रथम स्थिति और लोभकी तथा साम्परायसम्बन्धी प्रथम स्थिति है उतने आयामवाली प्रथम स्थिति स्थापित करता है । $ २६१. यह शेष संज्वलनोंके बिना लोभ संज्वलनकी अन्तर किये जानेको मर्यादा करके इतनी बड़ी प्रथम स्थितिको स्थापित करता है। यह नानापन यहाँपर जानना चाहिये । १. ता०प्रतौ जही इत्यतः सूत्रांश: टीकायां सम्मिलितः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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