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________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे गद्धाचरिमसमओ त्ति । पुणो कोहसंजलणे ओकडिदे चउत्थवारं वडियूण तत्तौ पहुड गलिदसेससरूवेणागदो जाव ओदमाणापुव्वकरण चरिमसमओ ति । संपहि एवंविहपोराण गुणसेढिणिक्खेव मुल्लंघियूण संखेज्जगुणवड्डीए वढमाणो एसो पढमसमयअधापवत्तकरणो विदियादिसमएस अवट्ठिदायाममेव गुणसेढिणिक्खेवं रचेह ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * जो पढमसमयअधापवत्त करणे णिक्खेवो सो तो मुहुत्तिओ तत्तिओ चेव । ९६ $ २१५. जाव अंतोमुहुत्तं ताव णियमा एसो अंतोमुहुत्तायामो होदूणावट्टिदो चैव होदि, तत्थ वड्ढिहाणीणं कारणाणुवलंभादो त्ति भणिदं होदि । पदेसग्गेण पुण णियमा हायमाणो गच्छदि, अनंतगुणहाणीए ओहट्टमाणपरिणामम्मि पयारंतरासंभवादो | एवतोमुहुत्तकालमवहिं कादूणेदं परूविय संपहि तत्तो परं गुणसेढि - णिकखेवो अट्ठिदायामो भजियन्वो त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तेण परं सिया वढदि सिया हायदि सिया अवट्ठायदि । - $ २१६. अधापत्रत्तकरणपढ़मसमय पहुडि अंतोमुहुत्तकालमवट्टिदायामेण गुणसेटिविण्णासं काढूण तत्तो परं गुणसेढिणिक्खे वायामस्स वड्हिाणिअवट्ठाणाणमण्णदरपज्जाएण परिणमदित्ति वृत्तं होदि । एदस्स भावत्थो - सत्थाणसंजदो होदूण अन्तिम समयतक गलितशेष आयामरूपसे होता है । अब इस प्रकारके पुराने गुणश्र णिनिक्षेपको उल्लंघन कर संख्यात गुणवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त "होता हुआ यह प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरण जीव द्वितोयादि समयोंमें अवस्थित आयामरूप गुणश्रेणिनिक्षेपकी ही रचना करता है इस बातका कथन करते हुए आगे सूत्रको कहते हैं * अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समयमें जो निक्षेप होता है वह अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होकर उतना ही रहता है । $ २१५. अन्तर्मुहूर्तं कालतक यह नियमसे अन्तर्मुहूर्त आयामवाला होकर अवस्थित ही रहता है, क्योंकि वहाँ वृद्धि और हानिका कारण नहीं पाया जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु प्रदेशपुंजकी अपेक्षा नियमसे उत्तरोत्तर घटकर कम होता जाता है, क्योंकि अनन्तगुणहानिरूपसे घटनेवाले परिणामोंके होते हुए दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालकी मर्यादापूर्वक इसका कथन करके अब उससे आगे गुणश्र णिनिक्षेप अवस्थित आयामरूप विकल्पसे होता है इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * उससे आगे गुणश्रेणिनिक्षेप आयाम कदाचित् बढ़ता है, कदाचित् घटता है और कदाचित् अवस्थित रहता है । $ २१६. अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित आयामरूप गुणश्रेणिनिक्षेप करके उससे आगे गुणश्र णिनिक्षेपका आयाम वृद्धि, हानि और अवस्थानरूपसे परिणमता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसका भावार्थ इस प्रकार है
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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