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गाथा ११२]
'गाहासुत्ताणं अत्थपरूवणा (५६) अंतोमुत्तमद्धदसणमोहस्स णियमसा खवगो।
खोणे देव-मणुस्से सिया वि णामाउगो बंधो॥ ११२॥ ६६. एत्थ गाहापुव्वद्धेण दसणमोहक्खवणापडिबद्धद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ती चेव होइ, ण तत्तो हीणाहियपरिमाणा त्ति जाणाविदं । तं कधं ? णियमसा णिच्छएणेव दंसणमोहक्खवगो अंतोमुहुत्तमेत्तकालं होइ, एत्तियमेत्तेण कालेण विणा तिकरणपडिबद्धाए पयदकिरियाए अपरिसमत्तीदो। अंतोमुहुत्तमेत्तकालेण दंसणमोहक्खवणं परिसमाणिय खीणदंसणमोहो होदूण खइयसम्माइट्ठिभावे वट्टमाणस्स जीवस्स देवमणुसगइसंजुत्तो चेव णामाउअबंधो होइ, गाण्णगइसंजुत्तो ति पदुप्पाथणटुं गाहाकरनेके लिए गाथासूत्रमें 'जहण्णगो तेउलेस्साए' यह वचन 'आया है।' आशय यह है कि उक्त जीवके यदि सबसे मन्द विशुद्धिरूप भी परिणाम होगा तो वह तेजोलेश्याके जघन्य अंशरूप ही होगा, अशुभ तीन लेश्यारूप नहीं। किन्तु शुभ तीन लेश्याओंमें से किसी एक लेश्याके पाये जानेका नियम कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होनेके पर्वतक ही जानना चाहिए। कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होनेके बाद तो उसके अन्य तीन शुभ लेश्याओंमें से जिस प्रकार किसी एक लेश्याका पाया जाना सम्भव है उसी प्रकार कापोत लेश्याका पाया जाना भी सम्भव है, क्योंकि जिस जीवने नरकायुका बन्ध करने के बाद क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्तिका उपक्रम किया है उसका कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वके कालके भीतर यदि मरण होता है तो ऐसी अवस्थामें उसके कापोत लेश्या भी पाई जाती है, क्योंकि ऐसा जीव मरकर प्रथम नरकमें भी उत्पन्न हो सकता है और यह तभी बन सकता है जब इसके मरणके समय कापोतलेश्या हो जाय ।
* यह जीव नियमसे अन्तर्मुहूर्त काल तक दर्शनमोहनीयका क्षपण करता है। तथा दर्शनमोहनीयके क्षीण हो जानेपर देव और मनुष्यसम्बन्धी नाम और आयुकर्मकी प्रकृतियोंका स्यात् बन्धक होता है ॥ ११२ ॥
६६. यहाँपर गाथाके पूर्वार्ध द्वारा दर्शनमोहनीयकी क्षपणासे सम्बन्ध रखनेवाला काल अन्तर्मुहूर्तमात्र ही होता है, उससे न तो हीन परिमाणवाला होता है और न अधिक परिमाणवाला ही यह ज्ञान कराया गया है।
शंका-वह केसे?
समाधान—क्योंकि 'णियमसा' अर्थात निश्चयसे ही दर्शनमोहकी क्षपणा अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण होती है, क्योंकि इतने कालके बिना तीन करणोंसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रकृत क्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा दर्शनमोहकी क्षपणाको समाप्त कर तथा क्षीण दर्शनमोहवाला होकर क्षायिक सम्यग्दृष्टिभावमें वर्तमान जीवके देव और मनुष्यगति संयुक्त ही नामकर्मकी प्रकृतियों और आयुकर्मका बन्ध होता है अन्य गतिसंयुक्त नामकर्मकी प्रकृतियोंका और आयुकर्मका नहीं इस तथ्यका कथन करनेके लिए गाथाके उत्तरार्धका अवतार हुआ है।