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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [दसणमोहक्खवणा विणा पयदत्थपरूवणाए णिण्णिबंधणत्तप्पसंगादो। संपहि ताओ कदमाओ त्ति आसंकाए पुच्छाणिद्देसमाह
* तं जहा।
F२. सुगममेदं पुच्छावकं । एवं पुच्छाविसईकयाणं गाहासुत्ताणं जहाकममेसो सरूवणिद्देसो
(५७) दसणमोहक्खवणापटुवगो कम्मभूमिजादो दु।
___णियमा मणुसगदीए णि?वगो चावि सव्वत्थ ॥११०॥ .
$ ३. एदीए गाहाए दंसणमोहक्खवणापट्ठवगस्स कम्मभूमिजमणु सविसयत्तमवहारिदं दट्ठव्वं, अकम्मभूमिजस्स य मणुस्सस्स च दंसणमोहक्खवणासत्तीए अचंताभावेण पडिसिद्धत्तादो। तदो सेसगदिपडिसेहेण मणुसगदीए चेव वट्टमाणो जीवो दंसणमोहक्खवणमाढवेइ । मणुसो वि कम्मभूमिजादो चेव, णाकम्मभृमिजादो ति घेत्तव्यं । कम्मभूमिजादो वि तित्थयर-केवलि-सुदकेवलीणं पादमूले दसणमोहणीयं खवेदमाढवेइ, णाण्णत्थ । किं कारणं ? अदिट्ठतित्थयरादिमाहप्पस्स दंशणमोहक्खवणसर्व प्रथम कथन करना चाहिए, क्योंकि उनका कथन किये बिना प्रकृत अर्थकी प्ररूपणाको निनिबन्धपनेका प्रसंग प्राप्त होता है । अब वे पाँच सूत्रगाथाएं कौनसी हैं ऐसी आशंका होनेपर पृच्छासूत्रका निर्देश करते हैं
* वह जैसे।
२. यह पूच्छावाक्य सुगम है । इस प्रकार पृच्छाके विषयभावको प्राप्त हुए गाथासूत्रोंका क्रमसे यह स्वरूपनिर्देश है
कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ मनुष्यगतिका जीव ही नियमसे दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक (प्रारम्भ करनेवाला) होता है। किन्तु उसका निष्ठापक ( उसे सम्पन्न करनेवाला ) सर्वत्र ( चारों गतियोंमें ) होता है ॥ ११० ॥
६ ३. इस गाथा द्वारा दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है इस विषयका निश्चय किया गया है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि अकर्मभूमिज मनुष्यके दर्शनमोहकी क्षपणा करनेकी शक्तिका अत्यन्त अभाव होनेके कारण वहाँ उसका निषेध किया गया है। इसलिए शेष गतियों में दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रतिषेध होनेसे मनुष्यगतिमें ही विद्यमान जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है। मनुष्य भी कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ ही होना चाहिए, अकर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ नहीं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ मनुष्य भी तीर्थकर जिन, केवली जिन और श्रुतकेवलीके पादमूलमें अवस्थित होकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है, अन्यत्र नहीं, क्योंकि जिसने तीर्थंकरआदिके माहात्म्यको नहीं अनुभवा है उसके दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके कारणभूत करणपरिणामोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती।