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पुरुपवेदके एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहते हैं, क्योंकि जो अन्तिम आवलिमें बँधे हैं उनकी बन्धावलिका काल अभी व्यतीत नहीं हुआ और जो एक समय कम द्विचरमावलिमें बँधे हैं उनकी उपशमनावलि अभी पूर्ण नहीं हुई है । इनका बाद में उपशम होता है ।
सवेद भागके अन्तिम समय में पुरुषवेदका स्थितिबन्ध सोलह वर्पप्रमाण, चार संज्वलनोंकथितबन्ध बत्तीस वर्पप्रमाण और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षप्रमाण होता है ।
पुरुपवेदको प्रथम स्थिति जब दो आवलि काल शेष रहती है तब आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है । प्रथम स्थितिमें स्थित प्रदेशपुंजका उत्कर्षण होकर द्वितीय स्थिति में निश्चिप्त होना आगाल कहलाता है और द्वितीय स्थितिमें स्थित प्रदेशपुंजका अपकर्षण होकर प्रथम स्थितिमें निक्षिप्त होना प्रत्यागाल कहलाता है ।
अवेदभाग के प्रथम समय से अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन इन तीन क्रोधों को उपशमानेका प्रारम्भ करता है। इसके वही पुरानी प्रथम स्थिति होती है । पहले अन्तरकरण क्रिया करते समय पुरुषवेद की प्रथम स्थिति से जो क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थिति कुछ अधिक स्थापित की थी, समय-समय में गलित होनेसे जितनी शेष बची वही यहाँपर उक्त तीन क्रोधोंके उपशमानेके प्रथम समय में स्वीकार की गई है। आगे चलकर मानादिककी उपशमना करते समय जिस प्रकार सवेदभागसे एक आवलि अधिक उनकी प्रथम स्थिति स्थापित की जाती है उस प्रकार उक्त तीन क्रोधोंकी नहीं स्थापित की जाती है। इस प्रकार उक्त तीन क्रोधोंकी उपशमना करते हुए जब क्रोधसंज्वलन की प्रथम स्थिति आवलि-प्रत्यावलिप्रमाण शेप रहती है तत्र द्वितीय स्थिति में से आगाल और प्रथम स्थितिमेंसे प्रत्यागालकी व्युच्छिति हो जाती है । उसके बाद क्रोधसंज्वलनका गुणश्रेणिनिक्षेप नहीं होता, मात्र प्रत्यावलि में से प्रदेशपुञ्जकी उदीरणा होती है। जब क्रोधसंज्वलनकी प्रत्यावलि में एक समय शेष रहता है तब उसकी जघन्य उदीरणा होती है । उस समय चार संज्वलनोंका स्थितिबन्ध चार माहप्रमाण और शेष कर्मों का संख्यात वर्पप्रमाण होता है । इसके बाद प्रत्यावलिके एक समयके गल जानेपर तब क्रोधसंज्वलन के दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयबद्धों को छोड़कर तीन प्रकारके क्रोधोंके शेष सब प्रदेश उपशमभावको प्राप्त हो जाते हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थिति में तीन आवलियाँ शेष रहने तक क्रोधसंज्वलन में शेष दो क्रोधोंके प्रदेशपुञ्ज संक्रमित होते हैं। उसमें एक समय कम तीन आवलियाँ शेप रहनेपर उक्त दो क्रोधों के प्रदेशपुञ्जका क्रोधसंज्वलन में संक्रमित होना बन्द हो जाता है । तथा जब क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थिति में एक समय कम एक आवलि शेष रहती है तब क्रोधसंज्वलन के बन्ध और उदय दोनों व्युच्छिन्न हो जाते हैं । कारणका खुलासा मूलमें किया ही है ।
जिस समय क्रोधसंज्वलनकी उदय व्युच्छित्ति होती है उसके अगले समय में ही वह मानसंज्वलन की प्रथम स्थिति करनेके साथ उसका वेदक होकर तीन प्रकारके मानोंका उपशामक होता है । तब चारों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम चार माह और शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्पप्रमाण होता है । पुनः आगे मानसंज्वलनकी प्रथम स्थिति में एक समय कम तीन आवलि शेष रहनेपर दो प्रकारका मान मानसंज्वलन में संक्रमित नहीं होता । प्रत्यावलिके शेष रहनेपर आगाल - प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते हैं । प्रत्यावलिमें एक समय शेष रहनेपर मानसंज्वलनके एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धको छोड़कर तीन प्रकार के