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गाथा १२३ ] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए करणकज्जणिद्देसो
२४१ * एदेण अप्पाबहुअविहिणा हिदिबंधसहस्साणि बहूंणि गदाणि ।
६१०३. जाव णाणावरणादीणं दुरावकिट्टिविसयं पावदि ताव संखेजसहस्समेत्ताणि द्विदिबंधोसरणाणि एदेणेव कमेण गदाणि, ण तत्थ परूवणाभेदो त्ति भणिदं होइ । तदो णाणावरणादिकम्माणं दूरावकिट्टिद्विदिबंधे संपत्ते तत्तो परं तेसिमसंखेजे भागे ट्ठिदिबंधेणोसरमाणस्स तकालपडिबद्धमप्पाबहुअभेदं वत्तइस्सामो
* तदो अण्णो हिदिबंधो । णामागोदाणं थोवो । 5 १०४. सुगमं । * इदरेसिं चदुण्हं पि कम्माणं द्विदिषधो असंखेजगुणो । $१०५. एदं पि सुगमं । * मोहणीयस्स हिदिव'धो असंखेज्जगुणो ।
१०६. किं कारणं ? दूरावकिट्टिविसयं दूरदो परिहरिय अज्ज वि मोहणीयट्ठिदिबंधस्स पलिदोवमस्स संखेज्जदिमागमेत्तद्विदिबंधवियप्पे समवट्ठाणदंसणादो ।
* एदेण कमेण हिदिबधसहस्साणि बहूणि गदाणि ।
* इस अल्पबहुत्वविधिसे बहुत हजार स्थितिबन्ध व्यतीत हुए ।
६१०३. जब जाकर ज्ञानावरणादि कर्मोंका दूरापकृष्टिविषयक स्थितिबन्ध प्राप्त होता है तबतक संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण इसी क्रमसे व्यतीत हुए, वहाँ प्ररूपणाभेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि कर्मोंका दूरापकृष्टिसंज्ञक स्थितिबन्धके प्राप्त होनेपर उसके बाद उन कर्मों के असंख्यात बहुभागका स्थितिबन्धरूपसे अपसरण करनेवाले जीवके उस कालसे सम्बन्ध रखनेवाले अल्पबहुत्वके भेदको बतलाते हैं
- * तत्पश्चत् अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है। उसको अपेक्षा नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है।
5 १०४. यह सूत्र सुगम है। * उससे इतर चारों ही कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । $ १०५. यह सूत्र भी सुगम है। * उससे मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है ।
$ १०६. क्योंकि दूरापकृष्टिके विषयभूत स्थितिबन्धको दूरसे छोड़कर अभी भी मोहनीय कर्मसम्बन्धी स्थितिबन्धका पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्धरूप भेदमें अवस्थान देखा जाता है।
* इस क्रमसे बहुत हजार स्थितिबन्ध व्यतीत हुए ।