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गाथा ११५]
संजमट्ठाणाणं अप्पाबहुअं * वीयरायस्स अजहण्णमणुकस्सयं चरित्तलद्धिट्ठाणमणंतगुणं ।
६३. कुदो ? खीणोवसंतकसाएसु केवलीसु च जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमलद्धीए एत्थ विवक्खियत्तादो। एसा उवसंतकसायभयवंतये जहण्णा होदु, खीणकसायसजोगि-अजोगीसु च उकस्सिया होउ, खइयलद्धिपाहम्मादो त्ति णासंकणिज्जं, खीणोवसंतकसाएसु कसायाभावेण अवट्टिदसंजमपरिणामेसु जहाक्खादविहारसुद्धिसंजमस्स मेदाणुवलंभादो।
एवमप्पाबहुए समत्ते तदो 'लद्धी तहा चरितत्तस्से त्ति समत्तमणिओगद्दारं । * उससे वीतरागका अजघन्य-अनुत्कृष्ट चारित्रलब्धिस्थान अनन्तगुणा है।
६६२. क्योंकि क्षीणकषाय, उपशान्तकषाय और केवलियोंमें जघन्य और उत्कृष्ट विशेषणसे रहित यथाख्यातविहारशुद्धि संयमलब्धिकी यहाँ पर विवक्षा है। - शंका-यह उपशान्तकषाय भगवन्तके जघन्य होओ तथा क्षीणकषाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीके क्षायिकलब्धिके माहात्म्यवश उत्कृष्ट होओ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि क्षीणकषाय और उपशान्तकषाय जीवोंमें कषायोंका अभाव होनेसे अवस्थित संयम परिणाम होनेपर यथाख्यातविहार. . शुद्धिसंयममें भेद नहीं उपलब्ध होता।
इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर 'लद्धी तहा चरित्तस्स'
के अनुसार संयमलब्धि अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
१. ता. प्रती तहोव इति पाठ: