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[ संजमलद्धी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुई ३०. एदेसि च अट्ठण्हमणिओगद्दाराणं विहासा सुगमा ति चुण्णिसुत्तयारेण ॥ वित्थारिदा । तदो एत्थ मंदमेहाविजणाणुग्गहडमेदेसिमणुगमं कस्सामो । तं जहा
संतपरूवणदाए दुविहो णिदेसो-ओघेणादेसेण य । ओघेण अत्थि संजदा सामाइय-छेदोवट्ठावण० परिहार० सुहुम० जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा च । एवं मणुसमणुसपजत्त-पंचिंदिय-पंचिंदियपजत्त-तस-तसपञ्जत्त - पंचमण० -पंचवचि०-कायजोगिओरालिय० -आमिणि० - सुद० - ओहि०-चक्खु०-अचक्खु०-ओहिदसण-सुक्कलेस्सियभवसिद्धिय-सम्मदिद्वि-खइयसम्मादिहि-सण्णि-आहारि ति । एवं मणुसिणी० । णवरि परिहारसुद्धि. पत्थि। एवमवगद०-मणपजव०-उवसमसम्माइट्टि ति । ओरालियमिस्स-कम्मइय० अत्थि जहाक्खादविसुद्धिसं० । सेसं णत्थि । एवमकसा०-केवलणाणि-केवलदंसणि-अणाहारि ति । आहार-आहारमिस्स०-इत्थि-णस. अत्थि सामाइय-च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा। पुरिसवेद० अत्थि सामाइय-छेदोव०-परिहारसुद्धिसंजद । एवं कोह-माण-मायाकसाय० । तेउ०-पम्म०-वेदगसम्माइट्ठि त्ति ओघभंगो। णवरि सुहुम०-जहाक्खाद० णस्थि । सेसमग्गणासु णत्थि संजदा। सेसाणिओगहाराणि वि एदेण बीजपदेण णादण णेदव्वाणि । णवरि सव्वत्थ संजमाणुवादं मोत्तूण
६३०. इन आठ अनुयोगद्वारोंकी विभाषा सुगम है, इसलिये चूर्णिसूत्रकारने विस्तार नहीं किया। अतएव यहाँपर मन्दबुद्धि जनोंका अनुगृह करनेके लिये इनका अनुगम करेंगे। यथा-सत्प्ररूपणाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सामायिकछेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीव हैं। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँच मनयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक ( मार्गणाबाले ) जीवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यिनियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें परिहारविशुद्धिसंयत जीव नहीं होते। इसी प्रकार अर्थात् मनुष्यिनियोंके समान अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। औदारिकमिश्रकायोगी
और कार्मणकाययोगयोगी जीवोंमें यथाख्यातविशुद्धिसंयत जीव हैं। शेष संयत जीव नहीं हैं । इसी प्रकार अकषायी, केवलज्ञानी, केवलदर्शनी और अनाहारकोंमें जानना चाहिये । आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव हैं। पुरुषवेदी जीवोंमें सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत और परिहारशुद्धिसंयत जीव हैं। इसीप्रकार क्रोध, मान और मायाकषायमें जानना चाहिये। तेज, पद्म और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत जीव नहीं हैं। शेष मार्गणाओंमें संयत जीव नहीं हैं। शेष अनुयोगद्वारोंका भी इसी बीजपदके अनुसार जानकर कथन करना